Thursday, September 06, 2007

क्लैडिस्कोप

कल रात मुझसे लिपट कर
सोई थी एक गज़ल,
सुबह अशआर टिके थे अम्बर पर,
दर्द टिका था कोरों पर,
खनखनाती और रँग बिरँगी किरचों से
उभर आए हैं नए आयाम.
अनजाने अहसास से एक क्लैडिस्कोप
बना लाई है शाम ।

_____________

5 comments:

Unknown said...

तारीफ करने के लिये शब्द नहीं हैं।

अनूप भार्गव said...

वाह !
तीसरी पंक्ति में अगर
सुबह अशआर टंगे थे अम्बर पर,
कहें तो ?

अनूप शुक्ल said...

सही है। अच्छी है। जवाब दीजिये पाठक की बात का!

रजनी भार्गव said...

बेजी तारीफ़ के लिए धन्यवाद !
अनूप ! मैं सोच रही थी कि तुम ही ठीक कर दोगे ,आधा काम तो कर ही दिया है
और अनूप (शुक्ला)जी आज सूरज किधर से निकला है ?
इतनी सारी टिप्पणियाँ :-)
धन्यवाद

दिनेश श्रीनेत said...

आपकी कविताएं अच्छी लगीं. मैं जल्द शुरू होने वाले हिन्दी पोर्टल में एडीटर हूं. मैं चाहता हूं आप हमारे साहित्य सेक्शन के लिए भी कुछ भेजें, आप अपनी कविताएं यूनीकोड में मेरे इस मेल आईडी पर भेज सकती हैं.
dinesh.s@greynium.com
मेरे दो ब्लाग भी हैं उन्हें देखें और राय भेजें
www.khidkiyan.blogspot.com
www.indianbioscpoe.blogspot.com
पोर्टल जल्द शुरू हो रहा है. आनलाइन होते ही आपको मेल भेजी जाएगी.
धन्यवाद दिनेश