Friday, December 18, 2009

मत्स्य

रात का आखिरी पहर जब और गाढ़ा हो,
जब हाथ को हाथ न सूझे,
अंधेरे में मुट्ठी भर शब्द
मोगरे की तरह महक उठे,
अंधेरे की रेशमी तह
चूम कर बलैयां लेती रहें,
तुम सिरहाने बैठ कर
शांत, निर्लिप्त, विरक्त
समुद्र में नौका खेते रहो
और,
मैं फेनल से भीगी मत्स्य
अर्जित कर दूँ तुम्हें वह बूँद
जो अमृत सी कंठ में बिंधी रहे,
प्यास बुझाती रहे युगों तक
आदि से अनंत तक।

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Tuesday, December 01, 2009

गुलाबी पतझड़

कुनमुनी रातें
अलाव सिकी यादें,
कुलमुलाती हैं
सखी की बातें

ठौर-ठौर पिये
चाँदनी का दोना लिये,
मढ़ती रात
तारों के धागे लिये

पोरों पर कसती
रानी कहानी रचती,
सूखी पीली पत्ती
अम्बर पर लिखती

मन गुंथी सांझ
झर गए पात-पात,
गुलाबी पतझड़ जाए
सखी घर याद आए।