देखूँ,
यदि आज मैं
गहरे नीले अम्बर को भेद सकूँ,
बरखा की बौछारों में
अपने अन्तर्मन को टटोल सकूँ,
सदियों से मूक मैं
इस धरती की व्यथा को बोल सकूँ,
तो
मैं नागफ़नी,
इन काँटों को झर कर,
तुम्हारा कोमल स्पर्श पा कर
अथाह नील,शांत समुद्र में डूब कर,
गौरांवित हो जाऊँगी और
तुमको अपने में समा लूँगी
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Saturday, November 27, 2010
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