Sunday, October 25, 2009

गाँठ

मेरे सर्वस्व की गाँठ
पानी, आग, धरा, पंचतंत्रो से गुँथी है,
अक्षत, रोली, मौली, धूप, दीप
से बनी है,
देवी, देवताओं, खड़िया से दीवार पर सजी है,
पेड़ों की फ़ुनगी पर नभ से बंधी रहती है
खुलती है तो छाँव सी धूप में घुल जाती है,
दिन जब चढ़ता है तो
बड़ या पीपल पर मन्न्त सी चढ़ जाती है।

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Friday, October 23, 2009

फ़ुर्सत के पल

पलाश के दहकते फूल
जब मेरी हथेली पर गिरते हैं,
फिसलते हुए ये जलते सूरज
मेरे मन में परिक्रमा करते हैं ।

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परिधि के घेरे में आ बैठे हैं,
कुछ चिन्ह नियुक्त कर बैठे हैं,
चिन्हों से जूझते हुए
परिधि में खुद को खो बैठे हैं।

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शब्दों का प्रांगण
पहेलियों का आँगन,
चौक जब भी पूरती हूँ,
होता है विचारों का आगमन।

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Thursday, October 08, 2009

मूक अभिवादन

घर की परिधि के दायरे
मेरे मानचित्र पर बिंदु से
उस पगडंडी पर रहते हैं
जहाँ सूर्योदय रोज़ तुम्हारे द्वार पर
लौटती सूर्य किरण की प्रतीक्षा करता है
पहाड़ी के उस ओर से
बादलों की टोली को हवा धकेल ले आती है
और
गुलदावदी के फूल हवा को छुपा कर
यूँ ही लहकते फ़िरते हैं

मैं और मेरा गुमान
तुमसे अनभिज्ञ
चुपचाप उस पगडंडी पर
मील पत्थर रखते जाते हैं,
क्षितिज को सोपान बना कर
परिधि को विस्तृत कर नित
मूक अभिवादन करते हैं।
मैं और मेरा गुमान
तुमसे प्यार किया करते है।