वो पल वहीं ठहर गया था,
जिस पल खिड़की से छनती धूप ने,
तुम्हे हताश और निढाल पाया था,
मेरी आँखों से कुछ सवाल करते पाया था।
वो सवाल अभी भी उघड़े पड़े हैं,
उस पोस्टकार्ड की तरह जो आया था
पहाड़ियों की बर्फ से भीग कर,
दराज़ में अब भी पड़ा है
कुछ सिकुड़ा हुआ।
चलो,
अब हताश लकीरों को ताक पर रख दें,
एक नए पोस्टकार्ड पर ट्यूलिप्स और क्रोकस बनाते हैं,
बसंत को बुलाते हैं,
कुछ बादल छँट जाएँगे,
तुम्हे मेरे कुछ जवाब मिल जाएँगे|
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Thursday, February 07, 2008
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