Saturday, August 21, 2010

एक प्रयास

एक सजल, निश्चल प्रयास हर दिन का
हर दिन हिमालय की चोटी पर चढ़ना
विश्रांत, थकी देह को चूर-चूर होते देखना
समतल, नगण्य और मौन विस्तब्धता
फिर उठाती है
एक पानी की बूँद
जिसके स्रोत से फूटते हैं
अनेक मीठे झरने जो
इस चराचर को तृप्त कर के
मेरे भीतर के बुद्ध को
जलमग्न कर देते हैं।

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Friday, August 13, 2010

आसपास

लगता है क्यों कि तुम हो आसपास
इन्द्रधनुष का एक रंग जो
लाल मौली सा खिंचा था क्षितिज के आसपास
बांध दिया था सूरज को उस मौली से आज,
मैं हरी दूब सी बिछी
पकड़े हुई थी दूसरा सिरा
सूरज को गांठ में बांध कर
नितल में छोड़ आई थी,
तुमने बदमाशी की थी,
रात को तुम गहराई से निकाल लाए थे,
आज पत्ते से लटकी ओस की बूँद में
तारे सा सूरज झिलामिला रहा था।
जब उसको देखा था तो
जाने क्या जता रहा था,
अपने पास बुला रहा था,
क्यों
लगा कि तुम हो आसपास।

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Tuesday, August 10, 2010

विनीत प्रार्थना

सफ़ेद कतरने,
हवा में लहरा रही थी,
हवा की दिशा बता रही थी।

मैं, पर,
हवा की विपरीत दिशा में चल रही थी,
मैं पकड़ना चाह रही थी,
हवा में उड़ते हुए सफ़ेद बुढ़िया के बाल,
वो नव पुलकित अहसास,
जो बिछे थे गुलाबी चेरी फूलों के साथ।
चिड़िया की चोंच में पानी की बूँद,
झिलमिला रही थी जो
मंगल तारे के समान,
शहद सी मीठी आवाज़ें जो
घुल रही थी मेरी परछाईंयों के संग।

ये भूल-भुलैया
ये पल के पड़ाव
हवा की गाँठ से रहते हैं
उन्मुक्त गगन में
जब खुलते हैं
मेरे मन की शिलालेख पर
गोधुली की वेला में
सूर्य किरण से लिख जाते हैं
विनीत प्रार्थना एक और दिन की।


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