Wednesday, February 17, 2010

रोशनी की लकीरें

कुछ दूर रख कर
कुछ फ़ासले से देखा
कागज़ पर उतरते नक्श को

धरती पर उतरती सूरज की छाया
जैसे बदलती हर पहर के रूप
गाढ़े रंग, हल्के रंग
आढ़ी, तिरछी रोशनी की लकीरें
सब उतर गए थे छवि के संग
उन के बीच में थी
वो
उदास आँखें जो
बीन रहीं थी
बसंत में खिले
रोशनी से भरे
सफ़ेद चेरी के फूल।

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Wednesday, February 10, 2010

चिरैया

फुनगी पर बैठी थी चिड़िया,
लपकी थी नभ की ओर
चुराई थी सांझ की लाल डिबिया
उड़ाई थी, फुटकायी थी
बनी थी गुलाबी गुलाल चिरैया।

ले के सांझ के संदेसे
लौटी थी अपने नीड़
पातियों को किया कंठबद्ध
स्वर दिया, संगीत दिया
बनी थी काली कोयल गौरया

भोर के पास पहुँचाने थे संदेसे
तड़के उठ कर स्नान किया
मंदिर की फेरी लगाई
प्रार्थना की, घंटी बजाई
बनी थी सौम्य दादी चिरैया

पगडंडी पर भागी
अम्बर से कलसी ढुलकाई
सूरजमुखी को सींच कर
इतराई, फ़िर भरमाई
बनी थी पागल पीत सोनचिरैया

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