Thursday, September 18, 2008

आरिगामी

धूप और पत्तों की आरिगामी
मेरी खिड़की पर बन रही थी,
सुबह के बदलते पहर
मुड़ते, खुलते
खिड़की के एक कोने पर
सीमित रह गए थे।
उस आरिगामी में रह गई थी अब,
एक मैना,
एक पत्ती,
एक टुकड़ा धूप।

धूप सरकी,
पत्ती टूटी,
मैना उड़ गई,
और,
अब रह गया है
सिर्फ़ कोरा कागज़
दूसरे पहर के रंग में ढलने के लिये
नई आरिगामी बनने के लिये।

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Tuesday, September 02, 2008

नानाजी की टोपी

मैं नानाजी की टोपी,
चाँद की किरण से सीती थी।

अंदर से टोपी उधड़ गई थी।
उम्र में बड़ी हो गई थी।
थकी-हारी कुछ बेजान सी लगती थी।
जब तागे निकल जाते थे तो
झूमर से लहराते थी।
बड़े छोटे बेतरतीब से माथे पर नज़र आते थे।

टोपी अब भी पुख्ता थी।
ऐसे लगता था जैसे कोई मनौती हो,
दुआ सी असर करती थी।
नानाजी को ठंड से बचाए रखती थी।

चाँद की किरण तिलस्मी होती है,
अम्बर की परी नानाजी की सहेली होती थी।
टोपी जब ठीक हो जाती थी
ढेरों आशीषों की बरसात होती थी।
नानाजी के पास चाँद की किरण होती थी,
मेरे पास आशीषों की बरसात।

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