कुछ खत पहुँचे, कुछ पहुँचे ही नहीं,
कुछ उत्तरी दिशा में देवदारों पर अटक गए,
कुछ दक्षिण दिशा में संदल बन में भटक गए.
दरवाज़े की ओट में किसी की नज़र में रह गए,
किसी राह में साँझ के साथ डूबते चले गए,
तुम्हारे साथ चलते हुए कुछ लिखे गए
पर टूटे माणिक से हर जगह बिखर गए,
आरज़ू बीनते हुए मन के हर पृष्ठ पर लिखे
पर कुछ मन की बारिश में भीगते हुए यूँ ही धुल गए,
कुछ खत पहुँचे, कुछ पहुँचे ही नहीं।
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Monday, December 10, 2007
Monday, December 03, 2007
अम्मा की रसोई
अम्मा की रसोई में
सुबह शाम जलता चूल्हा,
बच्चों का उपर नीचे कूदना,
किसी का झिड़की खाना
तो किसी का आंचल में छुप जाना,
दिन गुज़रता था ऐसे
हर पल सँवरता हो जैसे।
कितने प्रश्न अम्मा के सामने जा बैठते थे,
अम्मा उन्हें हर कोने से उठा कर
तरतीब से लगाती थी,
जैसे अँगीठी में जलते कोयलों को
अँगुलियों से ठीक तरह लगाती हों।
दिन भर प्रश्नों से जूझना,
साँझ ढले उन्हे गोद में ले कर सो जाना,
अम्मा ने भेद लिया था संसार का सार,
सृष्टि का किया था नव निर्माण।
रूढियों में बँध कर पाला था ये संसार,
जो रोपा था दहलीज़ के इस पार,
बाँट दी धरोहर आज सब उस पार।
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सुबह शाम जलता चूल्हा,
बच्चों का उपर नीचे कूदना,
किसी का झिड़की खाना
तो किसी का आंचल में छुप जाना,
दिन गुज़रता था ऐसे
हर पल सँवरता हो जैसे।
कितने प्रश्न अम्मा के सामने जा बैठते थे,
अम्मा उन्हें हर कोने से उठा कर
तरतीब से लगाती थी,
जैसे अँगीठी में जलते कोयलों को
अँगुलियों से ठीक तरह लगाती हों।
दिन भर प्रश्नों से जूझना,
साँझ ढले उन्हे गोद में ले कर सो जाना,
अम्मा ने भेद लिया था संसार का सार,
सृष्टि का किया था नव निर्माण।
रूढियों में बँध कर पाला था ये संसार,
जो रोपा था दहलीज़ के इस पार,
बाँट दी धरोहर आज सब उस पार।
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