Monday, September 03, 2007

अमलतास

जेठ की दुपहरी में
अलसाई धूप को लपेटे,
अमलतास लेता है अँगड़ाई,
मैं सिहर जाती हूँ,
छू जाती है जब ठँडी पुरवाई.

सूरज की किरणें जब पीले गुँचों में
नज़र आती हैं.
आँखों में फ़िरकनी घूम जाती है.

गुम दोपहरी में मैं,
पीले सूखे फूल मुट्ठी में भर कर,
बाबा को दे आती थी,
बाबा फ़ूँक मारते थे तो
हज़ारों तितलियाँ उड़ जाती थीं.

अमलतास के गले लग कर
हम अपनी बाँहों का घेरा नापते थे,
मेरा घेरा बढ़ता रहता था पर
बाबा का घेरा नहीं बढ़ता था.
मैं इंतज़ार करती रही कि
बाबा का घेरा कब बढ़ेगा.

घर के अहाते में आज
मेरे बिटिया की मुट्ठी में पीले सूखे फूल हैं,
फ़ूँक मारो तो हज़ारों तितलियाँ उड़ जाती हैं.
मेरा घेरा लेकिन अब नहीं बढ़ता,
लगता है अमलतास भी उतना का उतना ही है ।

6 comments:

Anonymous said...

अमलतास के प्रिय फूलों का सम्मान हुआ।आभार।

Unknown said...

बहुत सुंदर...खास पसंद आई...

बाबा फ़ूँक मारते थे तो
हज़ारों तितलियाँ उड़ जाती थीं.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

Behad khoobsurat bhaav samete ye kavit bahot pasand aayee Rajni ji ....
Aap likha kijiye ...un hee ...
sneh ke sath,
Lavanya

अनूप शुक्ल said...

सुन्दर!

Divine India said...

पहली बार आपके ब्लाग पर आया…
बेहतरीन रचना पढ़ने का मौका मिला…
बहुत ही शानदार कविता है…
बस मजा आगया…।

Batangad said...

रजनीजी
अमेरिका में जेठ की दुपहरी का अहसास आप कर पा रही हैं। सुखद है।