Monday, April 02, 2007

बसंत

बसंत चली आई,
अधमुँदीं पलकों में,
कुछ तस्वीरों को ले कर.

एक कोलाज उभर कर आया है,
कुछ कच्ची कलियाँ हैं शाखों पर,
हरी दूब और उसके बीच में हैं कुछ डैफोडिल,
ठंडी हवा के झोंके में सिहरते हैं
नन्ही चिड़िया के पंख.

पीले पराग को हाथों में
लिये मैं रँग रही थी
भोर के प्रतीक्षित क्षणों को,
और तुम,
मेरे उन्हीं क्षणों से
सूर्य को अर्ध्य दे रहे थे,
मेरे बसंत को आँखों में समेटे हुए
खिलते फूलों का प्रसंग दे रहे थे.

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7 comments:

Unknown said...

मेरे पलकों में भी बन गया है कोलाज आपके बसंत का।
बहुत सुंदर!!

Pratyaksha said...

बहुत कोमल भाव ! सुन्दर !

Poonam Misra said...

दिल को छूने वाली नाज़ुक कविता.बहुत अच्छी लगी

राकेश खंडेलवाल said...

गुनगुनाती हुई बयार
झूले की पेंगे पकड़ कर
छेड़ती है कली को
और सिहरा देती है
ओस के चुम्बनों को.
हाँ बसन्त ही तो है !

Udan Tashtari said...

सुंदर रचना.

रजनी भार्गव said...

बेजी,प्रत्यक्षा,पूनम जी,धन्यवाद. राकेश जी हमेशा की तरह आपकी प्रतिक्रिया अनूठी है.समीर जी आपकी टिप्पणी हमेशा की तरह मेरे लिए महत्वपूर्ण है.

Puja Upadhyay said...

badi nazuk si kavita hai...aur behad pyaari bhi.