बसंत चली आई,
अधमुँदीं पलकों में,
कुछ तस्वीरों को ले कर.
एक कोलाज उभर कर आया है,
कुछ कच्ची कलियाँ हैं शाखों पर,
हरी दूब और उसके बीच में हैं कुछ डैफोडिल,
ठंडी हवा के झोंके में सिहरते हैं
नन्ही चिड़िया के पंख.
पीले पराग को हाथों में
लिये मैं रँग रही थी
भोर के प्रतीक्षित क्षणों को,
और तुम,
मेरे उन्हीं क्षणों से
सूर्य को अर्ध्य दे रहे थे,
मेरे बसंत को आँखों में समेटे हुए
खिलते फूलों का प्रसंग दे रहे थे.
_______________
Monday, April 02, 2007
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
7 comments:
मेरे पलकों में भी बन गया है कोलाज आपके बसंत का।
बहुत सुंदर!!
बहुत कोमल भाव ! सुन्दर !
दिल को छूने वाली नाज़ुक कविता.बहुत अच्छी लगी
गुनगुनाती हुई बयार
झूले की पेंगे पकड़ कर
छेड़ती है कली को
और सिहरा देती है
ओस के चुम्बनों को.
हाँ बसन्त ही तो है !
सुंदर रचना.
बेजी,प्रत्यक्षा,पूनम जी,धन्यवाद. राकेश जी हमेशा की तरह आपकी प्रतिक्रिया अनूठी है.समीर जी आपकी टिप्पणी हमेशा की तरह मेरे लिए महत्वपूर्ण है.
badi nazuk si kavita hai...aur behad pyaari bhi.
Post a Comment