इस कोने से उस कोने तक
इस मकान से उस चौराहे तक
हर रोज़ बाँग लगाती है ज़िन्दगी
गली में कस्बे सी समाती है ज़िन्दगी
धूप के साथ सरकती चारपाईयाँ
खोमचे वालों की घूमती रेढियाँ,
भुनती शकरगँदी, चने और मक्के,
मौहल्ले के अधपके किस्से और
सिलाइयों में बुनती कहानियाँ.
धूप हर घर में झाँक जाती है,
दस्तक दे कर सब को बाहर बुला लेती है,
साँझ तारों को बुला लाती है
रात भोर का हाथ थामें
गली में य़ूँ ही फेरी लगाती है.
इस ठिये से उस ठिये तक,
यूँ तो बहुत चली है ज़िन्दगी
फ़िर भी लगता है
दो पल में ही गुज़र गई ज़िन्दगी
Thursday, October 26, 2006
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7 comments:
गुलज़ार सा'ब की यह पंक्तियां याद आ गयीं:
हो सके तो इसमें ज़िंदगी बिता दो
पल जो ये जाने वाला है
हम एक लमहे में सारी ज़िंदगी जी लेते हैं!
ऊन के गोले
गिरते हैं खाटों के नीचे
सलाईयाँ करती हैं गुपचुप
कोई बातें
पीते हैं धूप को जैसे
चाय की हो चुस्की
दिन को कोई कह दे
कुछ देर और ठहर ले
इस अलसाते पल को
कुछ और ज़रा पी लें
जिन्दगी के लम्हे
कुछ देर और जी लें
कभी पानी सी तरल
कभी मिट्टी सी जिन्दगी
कभी करेले सी कड़वी
तो कभी कट्टी-मिट्ठी सी जिन्दगी
बने बोझ तो, ढोते रहो
हँसी-खुशी पलमें गुजरे जिन्दगी.
बहूत अच्छी पंक्तियाँ लिखी है आपने ॰॰॰
अपनी कविता जिन्दगी का कुछ अंश आपको समर्पित कर रहा हूँ -
(पूरी कविता काफि लम्बी है सो मुझे डर हैं कहीं ब्लॉगस्पॉट हाथ ना खड़े कर दे। :) )
सड़क किनारे किसी पतली गली में,
आड़ी-तिरछी बनी हुई है॰॰॰ जिन्दगी
प्यार, खुशी, मंजील से दूर ले जाती "मजबूरी"
शायद किसी खूंटे से बंधी हुई है॰॰॰ जिन्दगी
सिगरेट के छल्ले और मदिरा की बोतलें
अपनी मस्ती में मस्त बेफिक्र है॰॰॰ जिन्दगी
खुले गगन में सितारों के बीच उड़ता पंछी बोला
आगे बढ़ते रहने का नाम है॰॰॰ जिन्दगी
खुली आज वह एक पिटारी, जिसे सहेजा बना धरोहर
यादों की अलगनियों पर फिर लटकाया बचपन को धोकर
बढ़ते रहे कदम नित पथ पर अनजाने मोड़ों से आगे
लेकिन छुटा नीड़ जो पीछे, रहे सर्वदा उसके होकर
ऐसा लग रहा है दिल्ली की गलियाँ फ़िर से बस गई,बहुत खूब प्रत्यक्षा, गिरिराज जोशी, संजय जी,राकेश जी, और अनुराग जी.आप सब की सराहना के लिए धन्यवाद.
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