कविता कुछ पुरानी है,
सिराहने रखी किताब के पन्नों से,
हर दिन झाँकती है,
उम्र के साथ धूमिल होती
अस्पष्ट लकीरें,
गुलदावरी के समान अभी भी
महकती हैं,
सूखी पत्तियों की नाज़ुक
पाँखुरी में बैठी ज़िन्दगी,
धीमी होती नब्ज़ को
टटोलती है.
Sunday, October 01, 2006
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