Wednesday, August 30, 2006

तुम

जब आँखों से ओझल होता है वो कोना,
तुम उस मोड़ पर नज़र आते हो.
जब बहुत याद आते हो तुम,
सन्नाटे के शोर में गूँजते नज़र आते हो.
जब चाँद का प्रतिबिम्ब होता है कुछ धुँधला,
तुम ख्वाब बन पानी पर उड़ते नज़र आते हो.
जब आँगन में सजाते हैं आहटों को,
तुम सामने से आते दिखाई देते हो,
सिरफ़िरी धूप का कोना पकड़
मेरे माथे पर बिखर जाते हो.

2 comments:

Udan Tashtari said...

"जब बहुत याद आते हो तुम,
तुम सन्नाटे के शोर में गूँजते नज़र आते हो."
सुंदर पंक्तियों के लिये बधाई.

-समीर लाल

रजनी भार्गव said...

समीर जी,
प्रोत्साहन के लिए बहुत बहुत धन्यवाद,
रजनी