Wednesday, August 09, 2006

भ्रम

देखो सखी सूरज ने आज मुझे जगाया
ओस की बूँदों ने पैरों को गुदगुदाया
गैंदे और गुलाब ने मखमली धूप को सजाया
मेरे हाथों की तपिश को गुलाल बना
अपनें मुख पर लगाया

सुबह की इस आब को,
स्थिर क्षण की इस आस को,
जीवन भर के इस प्रयास को,
नक्षत्र बना आकाश में टांक दिया है
जब टूटेगा, तो अनकही इच्छा बना
फ़िर इस सुबह को बुला लूँगी
एक और क्षणिक भ्रम बना
सूरज को फ़िर बुला लूँगी ।

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2 comments:

Pratyaksha said...

वाह ! सुंदर

Udan Tashtari said...

बहुत सुंदर, बधाई.
समीर लाल