Tuesday, August 10, 2010

विनीत प्रार्थना

सफ़ेद कतरने,
हवा में लहरा रही थी,
हवा की दिशा बता रही थी।

मैं, पर,
हवा की विपरीत दिशा में चल रही थी,
मैं पकड़ना चाह रही थी,
हवा में उड़ते हुए सफ़ेद बुढ़िया के बाल,
वो नव पुलकित अहसास,
जो बिछे थे गुलाबी चेरी फूलों के साथ।
चिड़िया की चोंच में पानी की बूँद,
झिलमिला रही थी जो
मंगल तारे के समान,
शहद सी मीठी आवाज़ें जो
घुल रही थी मेरी परछाईंयों के संग।

ये भूल-भुलैया
ये पल के पड़ाव
हवा की गाँठ से रहते हैं
उन्मुक्त गगन में
जब खुलते हैं
मेरे मन की शिलालेख पर
गोधुली की वेला में
सूर्य किरण से लिख जाते हैं
विनीत प्रार्थना एक और दिन की।


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2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत उम्दा!

Sunil Kumar said...

सुंदर अभिव्यक्ति ,बधाई