Saturday, March 27, 2010

अनकहे बोल

मेरे मानस में अनमने बोल हैं
मन के क्षितिज पर अनकहे बोल हैं
कहती हैं कहानियाँ
यह मेरे मन के चोर हैं
अनबुझी सांस की पोर हैं
जीवन के प्रवाह के छोर हैं
फिर
सासें क्यों नही आती
जब गुजरती है मेरी छाया
तुम्हारे कदमों से लिपट के
ढलती है मेरी काया
तुम्हारे नयनों मे सिमट के
सोचती है मेरी भाषा
तुम्हारे शब्दों से निखर के।

समय के अवगुंठन
सिन्दूरी क्षितिज की प्रतीक्षा में
जैसे
रेतीले कण लहरों के साथ
हर बार लौट आते हैं
सूरज की परिक्रमा कर
मेरे विराम तुम पर पूर्ण हो जाते हैं

आकाश के विस्तार में तुम्हारे अर्ध सत्य
मेरे सत्य के बोध हो जाते हैं
तुम्हारे जीवन के केन्द्र बिन्दु
मेरे जीवन की परिधि हो जाते हैं

जीवन की अनबुझी सांसों के मौन
मेरे बोल बन जाते हैं ।

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8 comments:

Rajeysha said...

खुबसूरत अभि‍व्‍यक्‍ि‍त के लि‍ये बधाई।

Amitraghat said...

सुन्दर रचना............"

विजयप्रकाश said...

वाह...सुंदर भाव.शब्दों का चयन भी अच्छा है

Udan Tashtari said...

आकाश के विस्तार में तुम्हारे अर्ध सत्य
मेरे सत्य के बोध हो जाते हैं
तुम्हारे जीवन के केन्द्र बिन्दु
मेरे जीवन की परिधि हो जाते हैं

-बहुत सुन्दर!

के सी said...

समय के अवगुंठन
सिन्दूरी क्षितिज की प्रतीक्षा में
जैसे
रेतीले कण लहरों के साथ
हर बार लौट आते हैं

वाह बहुत सुंदर...

आओ बात करें .......! said...

मेरी तमाम कोशिश बेकार.....कुछ नहीं लिख पाया....में कवित्व पर टिप्पणी करने लायक कभी नहीं था...लेकिन इस कविता ने मुझे दुस्साहस न करने पर मजबूर कर दिया.
क्या अनकहे बोल है......एसा समर्पण!! भावों की इस कदर पूर्णता!! वो भी शब्दों के द्वारा.....ये आपने कैसे किया...मुझ जैसे औसत व्यक्ति के लिए समझ पाना, वाकई मुश्किल है.

राकेश खंडेलवाल said...

सोचती है मेरी भाषा
तुम्हारे शब्दों से निखर के।

इसके बाद कुछ कहना आवश्यक नहीं.

संजय भास्‍कर said...

खुबसूरत अभि‍व्‍यक्‍ि‍त के लि‍ये बधाई।