Tuesday, March 16, 2010

नीम

कागज़ पर कुछ टेढ़ी मेढ़ी लकीरें
नक्शे पर नीली, हरी लकीरें
बच्चों के मन में गढ़ गई थीं,
आज लकीरें सुलग रही थीं
बनती बिगड़ती बटोही सी
भटक रही थीं।

खबर थी,
सीमा को कल मोड़ दिया था
आज पहाड़ के उस पार पहुँचा दिया था
गुड़हल के फूल,
नीम का पेड़,
कल छज्जू मियाँ की खपरैल और
अहाते में बिछी धूप को
समेट कर
खेमे में गाढ़ दिया था।

खेमे से
दूर-दूर तक दिखता है
लकीरों का ताना बाना
क्षितिज, एक नितांत सीमा
जहाँ से सूर्य किरण
थकी हारी अंदर आती है,
खेमे के, वृत में
गुड़हल के फूल
और नीम के बौने पेड़
को सींचती है,
नीम का बौना पेड़
अब पनपता नहीं
ठूँठ सा अब
खेमे में ही रहता है
रोज़ जल जाता है
नीम का पेड़ कट-कट कर
गिर जाता है।
­­­­­­­­­­__________________________

6 comments:

Randhir Singh Suman said...

nice

के सी said...

सिमटती जा रही है दुनिया और संबन्ध बोनसाई हो गए हैं
बढ़िया कविता, कई कई बार पढ़ी और कई बार पढ़ने का मन है

Udan Tashtari said...

आज लकीरें सुलग रही थीं
बनती बिगड़ती बटोही सी
भटक रही थीं।


-बहुत गहन अभिव्यक्ति!!

कुश said...

"छज्जू मियाँ की खपरैल"

क्या बात है,, अद्भुत लिखावट है..

आओ बात करें .......! said...

ताकत के व्यापार में
भूगोल बदलने का शगल है
गुलामी को प्रायोजित करने का रिवाज है
इंसान क्या भगवान की भावना की कोई पूछ नहीं
फिर 'नीम' का 'ठूंठ' बनाने से रोके कौन??????

संजय भास्‍कर said...

-बहुत गहन अभिव्यक्ति!!