फुनगी पर बैठी थी चिड़िया,
लपकी थी नभ की ओर
चुराई थी सांझ की लाल डिबिया
उड़ाई थी, फुटकायी थी
बनी थी गुलाबी गुलाल चिरैया।
ले के सांझ के संदेसे
लौटी थी अपने नीड़
पातियों को किया कंठबद्ध
स्वर दिया, संगीत दिया
बनी थी काली कोयल गौरया
भोर के पास पहुँचाने थे संदेसे
तड़के उठ कर स्नान किया
मंदिर की फेरी लगाई
प्रार्थना की, घंटी बजाई
बनी थी सौम्य दादी चिरैया
पगडंडी पर भागी
अम्बर से कलसी ढुलकाई
सूरजमुखी को सींच कर
इतराई, फ़िर भरमाई
बनी थी पागल पीत सोनचिरैया
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Wednesday, February 10, 2010
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4 comments:
Sundar Rachana...Badhai swikaar kare!!
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
सुन्दर सोनचिरैया!! :)
अच्छे भाव!
चुराई थी सांझ की लाल डिबिया
उड़ाई थी, फुटकायी थी
बनी थी गुलाबी गुलाल चिरैया।
बड़ी प्यारी सी....गुदगुदाती कविता है .....
पगडंडी पर भागी
अम्बर से कलसी ढुलकाई
सूरजमुखी को सींच कर
इतराई, फ़िर भरमाई
बनी थी पागल पीत सोनचिरैया
मुस्कान छोड़ जाती है चेहरे पर.....
गुलाबी चिरैया
काली चिरैया
दादी चिरैया
पागल चिरैया
जिंदगी के हर रंग, हर ढंग, हर चाल और हर पात की प्रतिनिधि बन गई है आपकी चिरैया!!!!
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