Wednesday, January 27, 2010

गुल्लक

लम्हे, गुल्लक में
रेज़गारी से खनकते हैं
हर दिन रुई से भरी दोहड़
के लिए ललकते हैं।
एक लम्हा,
जब आँखें उस पर टिक जाती हैं,
लाल, पीले फूलों वाली,
किस, किस पगडंडी से गुज़रती है,
ठिठुरन में जलते अलावों सी
धूप की सगी बहन लगती है,
मुलायम सी रेशमी तारों की
देवों के दुशाले सी लगती है,
उड़न खटोले सी जादुई
आँखों में सपनों सी विचरती है,
दुकान में वो ही,
अमूल्य निधि दिखती है,
कोहरा भी छट जाता है,
आज का लम्हा भी गुल्लक
में जमा हो जाता है,
खनकता है,
कल शायद....


______________

8 comments:

Udan Tashtari said...

ठिठुरन में जलते अलावों सी
धूप की सगी बहन लगती है,

-बहुत उम्दा!!

Anonymous said...

"लम्हे, गुल्लक में
रेज़गारी से खनकते हैं"
वाह-वाह और फिर
आज का लम्हा भी गुल्लक
में जमा हो जाता है,
खनकता है,
कल शायद....
लाजवाब. यही तो है "कवि-मन" की सोच जो कभी भी कही भी पहुँच जाती है जैसे "गुल्लक" में अति सुंदर.

डॉ .अनुराग said...

ओर इस गुल्लक को कभी फोड़ने का मन नहीं करता ......

दिगम्बर नासवा said...

"लम्हे, गुल्लक में
रेज़गारी से खनकते हैं" ...

BAHUT KHOOB JEEVAN KI GULLAK LAMHON KI REZGAARI SE BHARTI RAHTI HAI ... PAR IS REZGAARI KA ISTEMAAL KISI KHAAMOSH AUR UDAAS PALON MEIN SUKOON DE JAATA HAI .....
BAHUT GAHRI BAAT .... JEEVAN KA FALSAFA HAI AAPKI RACHNA MEIN ......

आओ बात करें .......! said...

कल शायद............................
लम्हों की जमाखोरी करने की आदत हो जाएगी,
कीमती गुल्लक फोड़, अहसासों से मुलाकात की लत हो जाएगी.
आप यूँ ही लिखेंगी तो हमें अपनी बातों को बेलगाम करने की आज़ादी मिल जाएगी.........!!

आपने जबाब देकर मान बढाया, उसके लिए आभार.

अपूर्व said...

अद्भुत!!
गुल्लक का यह दिलकश बिंब और स्मृतियों से उसका संबंध मुझे सदैव चमत्कृत करता रहता है..मगर यह गुल्लक तो जैसे शाश्वत है..समय के बीच और उससे परे..

आज का लम्हा भी गुल्लक
में जमा हो जाता है,
खनकता है,
कल शायद....

vedvyathit said...

yh aag n kho jaye
deel me hee rkhna
yh rakh v ho jaye

yh aag hai khel nhi
deel jaisee sulgtee hai
ise sahnaa khel nhi

ye aag to dheemi hai
dil aur jlao to
ye doop hee sili hai
sumdr rchna bdhai
dr.vedvyathit@gmail.com

कडुवासच said...

... बेहतरीन रचना !!