Thursday, October 08, 2009

मूक अभिवादन

घर की परिधि के दायरे
मेरे मानचित्र पर बिंदु से
उस पगडंडी पर रहते हैं
जहाँ सूर्योदय रोज़ तुम्हारे द्वार पर
लौटती सूर्य किरण की प्रतीक्षा करता है
पहाड़ी के उस ओर से
बादलों की टोली को हवा धकेल ले आती है
और
गुलदावदी के फूल हवा को छुपा कर
यूँ ही लहकते फ़िरते हैं

मैं और मेरा गुमान
तुमसे अनभिज्ञ
चुपचाप उस पगडंडी पर
मील पत्थर रखते जाते हैं,
क्षितिज को सोपान बना कर
परिधि को विस्तृत कर नित
मूक अभिवादन करते हैं।
मैं और मेरा गुमान
तुमसे प्यार किया करते है।

6 comments:

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

मैं और मेरा गुमान
तुमसे अनभिज्ञ
चुपचाप उस पगडंडी पर
मील पत्थर रखते जाते हैं,
क्षितिज को सोपान बना कर
परिधि को विस्तृत कर नित
मूक अभिवादन करते हैं।
मैं और मेरा गुमान
तुमसे प्यार किया करते है।


bahut hi touchy lines hain yeh .......

अनिल कान्त said...

आपकी रचना बहुत बहुत बहुत पसंद आई मुझे
शब्द, सोच, एहसास सब के सब एकदम परफेक्ट

Udan Tashtari said...

मैं और मेरा गुमान
तुमसे अनभिज्ञ
चुपचाप उस पगडंडी पर
मील पत्थर रखते जाते हैं,
क्षितिज को सोपान बना कर
परिधि को विस्तृत कर नित
मूक अभिवादन करते हैं।


-बहुत कोमल रचना! सुन्दर.

sanjay vyas said...

अदेखा सौन्दर्य है इन पंक्तियों में!

अफ़लातून said...

अत्यन्त सुन्दर है कविता ।

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया रचना।बधाई।