घर की परिधि के दायरे
मेरे मानचित्र पर बिंदु से
उस पगडंडी पर रहते हैं
जहाँ सूर्योदय रोज़ तुम्हारे द्वार पर
लौटती सूर्य किरण की प्रतीक्षा करता है
पहाड़ी के उस ओर से
बादलों की टोली को हवा धकेल ले आती है
और
गुलदावदी के फूल हवा को छुपा कर
यूँ ही लहकते फ़िरते हैं
मैं और मेरा गुमान
तुमसे अनभिज्ञ
चुपचाप उस पगडंडी पर
मील पत्थर रखते जाते हैं,
क्षितिज को सोपान बना कर
परिधि को विस्तृत कर नित
मूक अभिवादन करते हैं।
मैं और मेरा गुमान
तुमसे प्यार किया करते है।
Thursday, October 08, 2009
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6 comments:
मैं और मेरा गुमान
तुमसे अनभिज्ञ
चुपचाप उस पगडंडी पर
मील पत्थर रखते जाते हैं,
क्षितिज को सोपान बना कर
परिधि को विस्तृत कर नित
मूक अभिवादन करते हैं।
मैं और मेरा गुमान
तुमसे प्यार किया करते है।
bahut hi touchy lines hain yeh .......
आपकी रचना बहुत बहुत बहुत पसंद आई मुझे
शब्द, सोच, एहसास सब के सब एकदम परफेक्ट
मैं और मेरा गुमान
तुमसे अनभिज्ञ
चुपचाप उस पगडंडी पर
मील पत्थर रखते जाते हैं,
क्षितिज को सोपान बना कर
परिधि को विस्तृत कर नित
मूक अभिवादन करते हैं।
-बहुत कोमल रचना! सुन्दर.
अदेखा सौन्दर्य है इन पंक्तियों में!
अत्यन्त सुन्दर है कविता ।
बहुत बढिया रचना।बधाई।
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