रास्ते में जब रुकी तो
दीवारों के कान उग आए थे
पत्तों की सरसराह्ट थी
आँगन में बुदबुदाहट थी
और
दीवारों की आँखों में रंग भर गए थे
कपाट पर कूची से बूटे खिले थे
सफ़ेद पुती दीवार पर जलाशय बने थे
बाहर
अहाते में तिमिर का कोलाहल बोल रहा था
झींगुर की आवाज़े थीं
चन्द्रकिरण की आने की आह्टें थी
रास्ते में जब रुकी तो
मेरे अंदर डूब गई थी सब आवाज़ें
उग आया था एक दरख्त जहाँ
बसती है लाल गौरैया
गाती है वो क्वार गीत जो
पतझड़ में भी बसंत का आभास दिला जाता है।
Wednesday, September 30, 2009
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5 comments:
रास्ते में जब रुकी तो
मेरे अंदर डूब गई थी सब आवाज़ें
पर शायद सब आवाजो के स्वर जाने पहचाने से थे
बहुत सुन्दर
रास्ते में जब रुकी तो
मेरे अंदर डूब गई थी सब आवाज़ें
उग आया था एक दरख्त जहाँ
बसती है लाल गौरैया
गाती है वो क्वार गीत जो
पतझड़ में भी बसंत का आभास दिला जाता है।
Badhiya ....
Bade dino baad aayeein aap :)
रास्ते में जब रुकी तो
दीवारों के कान उग आए थे
--क्या बात है!! बेहतरीन कल्पनाशीलता!! बधाई...इस उम्दा रचना के लिए.
वाह वाह
बेहतरतम रचना
भगवान का शुक्र है कि दीवारों के दांत नहीं उगते
वरना जीवन कुछ ज्यादा ही कष्टकारी हो जायेगा
rajni ji
namaskar
aapke blog par bahut der se hoon aur aapki rachnaao ko padhkar doob raha hoon prakruti ke saundarya me .. ..
aap bahut accha likhti hai ..
meri dil se badhai sweekar kare..
regards
vijay
www.poemsofvijay.blogspot.com
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