वो पल वहीं ठहर गया था,
जिस पल खिड़की से छनती धूप ने,
तुम्हे हताश और निढाल पाया था,
मेरी आँखों से कुछ सवाल करते पाया था।
वो सवाल अभी भी उघड़े पड़े हैं,
उस पोस्टकार्ड की तरह जो आया था
पहाड़ियों की बर्फ से भीग कर,
दराज़ में अब भी पड़ा है
कुछ सिकुड़ा हुआ।
चलो,
अब हताश लकीरों को ताक पर रख दें,
एक नए पोस्टकार्ड पर ट्यूलिप्स और क्रोकस बनाते हैं,
बसंत को बुलाते हैं,
कुछ बादल छँट जाएँगे,
तुम्हे मेरे कुछ जवाब मिल जाएँगे|
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Thursday, February 07, 2008
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20 comments:
wah..sawal laajwaab hai.....sahi manyno mein likhi kavita...
bahut khubsurat se andaz mein peshkash ki hai apne sawal ki,nice dilko chu gayi kavita.
बहुत बढ़िया है.
कीर्ति,महक,और मीत जी बहुत-बहुत धन्यवाद कविता
सराहने के लिये.
वाह!
वो पल वहीं ठहर गया था,
जिस पल खिड़की से छनती धूप ने,
तुम्हे हताश और निढाल पाया था,
मेरी आँखों से कुछ सवाल करते पाया था।
बहुत सुंदर।
amazing poetry I must say...appears to be a wonderful mix of Gulzar and Vishnu Prabhakar...so filled with nostalgia and emotions...
Some of the finest expression of words i have come across...
Kudos...
बेशक बहुत अच्छी कविता है। पर जीवन में कई बार जवाब के बजाय बेहूदा सवाल सामने आ जाते हैं। शुक्र है कि आपने उम्मीद जताई : कुछ बादल छंट जाएंगे/ तुम्हें मेरे कुछ जवाब मिल जाएंगे।
इस कविता को पढ़कर दुष्यंत कुमार की एक ग़ज़ल के दो शेर याद आते हैं :
जाने किस किस का ख्याल आया है
इस समंदर में भी उबाल आया है
मैंने सोचा था जवाब आएगा
एक बेहूदा सवाल आया है।
चलो,
अब हताश लकीरों को ताक पर रख दें,
एक नए पोस्टकार्ड पर ट्यूलिप्स और क्रोकस बनाते हैं,
बसंत को बुलाते हैं,
कुछ बादल छँट जाएँगे,
तुम्हे मेरे कुछ जवाब मिल जाएँगे|
कितना नयापन है इस बात में...
मैं तो कहता हूँ इससे बेहतर और कोई बात नहीं...
rajni jee,
saadar abhivaadan. aaj pehlee baar hee apko padhaa, apne kuchh palon mein hee bataa diyaa ki aap kaa mizaz hamse mel khaataa hai. dhanyavaad.
चलो,
अब हताश लकीरों को ताक पर रख दें,
एक नए पोस्टकार्ड पर ट्यूलिप्स और क्रोकस बनाते हैं,
बसंत को बुलाते हैं,
कुछ बादल छँट जाएँगे,
तुम्हे मेरे कुछ जवाब मिल जाएँगे|
sari rachna ka sar lagi ye panktiya....gahri samvendna hai.
रजनी जी, आपकी टिप्पणी के ज़रिए यहां पर आया। मुझे तो सचमुच पता ही नहीं था कि आप इतना अच्छा लिखती हैं। पूरी कविता जैसे आपको नई दृष्टि और ओज से भर देती है, लेकिन ये लाइनें दिमाग के किसी आले में स्थाई रूप से रख लेने लायक हैं कि...
चलो,अब हताश लकीरों को ताक पर रख दें,
एक नए पोस्टकार्ड पर ट्यूलिप्स और क्रोकस बनाते हैं,बसंत को बुलाते हैं...
फिर ब्लॉग का परिचय भी आपने क्या खूब लिखा है...
किताबों में कुछ किस्से हैं, मेरी उम्र के कुछ गुज़रे हुए हिस्से हैं
dekho g, ghumte-ghumte aaya idhr aur aapki kvitaon ne neh jod liya...kya aapki koi chhapi kitab hai...jise kbhi bhi aur kahi bhi mai le ja skoon ya dosto ko upahar de skoon ki ye padho...khair mai to idhr aake padh loonga g..
CHALO
AB HATAAS LAKIRON KO
TAAK PAR RAKH DEN.
sundar rachna...badhai.
yah bhi kahna chahunga..
JINKE HATHON MEIN
LAKIREN NAHIN CHHALE HONGE,
WAQT KI DOR VAHI LOG
SAMBHALE HONGE.
AUR JO LOG GAMON-DARD KE
PAALE HONGE,
UNKE JEENE KE ANDAAZ
NIRALE HONGE.
जवाबो सवालों का अच्छा सिलसिला है.
कविता की कहन बहुत अच्छी है.शब्दों की ताक़त है कि ज़िन्दगी के बहुत से सवालों का जवाब देते हैं.
"पिक्चर पोस्टकार्ड" छात्र जीवन में पढ़ी निर्मल वर्मा की कहानी का अवसाद, जूक बॉक्स में सिक्का डालते ही बज उठने वाली मनचाही धुन साथ तो बस कम होता था, लेकिन यहां गीला मुड़ा तुड़ा पोस्टकार्ड विस्मृति के बस्ते में डालकर किया जाने वाला बंसत का इंतजार अवसाद की हर परत में सुनहरा उजाला उड़ेल रहा है। पहली बार आया बहुत अच्छा लगा, बधाई।
चलो,
अब हताश लकीरों को ताक पर रख दें,
एक नए पोस्टकार्ड पर ट्यूलिप्स और क्रोकस बनाते हैं,
बसंत को बुलाते हैं,
कुछ बादल छँट जाएँगे,
तुम्हे मेरे कुछ जवाब मिल जाएँगे|
बहुत ही सुंदर रचना.. बधाई स्वीकार करे
sawal khud hi sawal ban gaya...
kadra karte hai ham aapki bhawnao ka.
dil ko chun lene vale ahsas
navinta se bharpur
meri shubh kamnayain
गज़ब है भाई
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