Monday, December 03, 2007

अम्मा की रसोई

अम्मा की रसोई में
सुबह शाम जलता चूल्हा,
बच्चों का उपर नीचे कूदना,
किसी का झिड़की खाना
तो किसी का आंचल में छुप जाना,
दिन गुज़रता था ऐसे
हर पल सँवरता हो जैसे।
कितने प्रश्न अम्मा के सामने जा बैठते थे,
अम्मा उन्हें हर कोने से उठा कर
तरतीब से लगाती थी,
जैसे अँगीठी में जलते कोयलों को
अँगुलियों से ठीक तरह लगाती हों।
दिन भर प्रश्नों से जूझना,
साँझ ढले उन्हे गोद में ले कर सो जाना,
अम्मा ने भेद लिया था संसार का सार,
सृष्टि का किया था नव निर्माण।
रूढियों में बँध कर पाला था ये संसार,
जो रोपा था दहलीज़ के इस पार,
बाँट दी धरोहर आज सब उस पार।

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13 comments:

अजित वडनेरकर said...

जबर्दस्त कविता।

Abhishek Sinha said...

सुन्दर , मर्ममय ।

अफ़लातून said...

सजीव । बधायी ।

Sanjeet Tripathi said...

सुंदर!!

नीरज गोस्वामी said...

वाह. भावपूर्ण कविता
बधाई
नीरज

अमिताभ मीत said...

आहा ! कमाल है. जाने किन ख़यालों में खो गया हूँ. जाने क्या .... क्या क्या कह गई आपकी रचना.

Unknown said...

कितने दिनों बाद लिखा है आपने....सुंदर....आप ऐसा ही लिखती हैं हर बार...!!

Reetesh Gupta said...

अच्छा लगा पढ़कर ...सुंदर भाव ...बधाई

Neeren said...

बहुत खूब |

विजय गौड़ said...

kavitaon mai ek tajgi hai. lekin bhoogol nhi badalta hai.

Ankur Bhargava said...

amma ki yaad aa gayi, haatho rongte khade ho gaye

Anonymous said...

मर्मस्पर्शी

Anonymous said...

Maa ki yaad aa gayi.
Bhavon se bhari kavita hai.

Rgds..Shardula