Thursday, February 15, 2007

तेरा साथ

दिशाहीन रास्ते पर
हर रास्ता जाना पहचाना है,
ज़िन्दगी परिचित सी है
जब से मैने जाना है.

एक सिरा नहीं, एक मंज़िल नहीं
जब से तुझे पाया है.
क्षितिज की स्वर्णिम रेखा कहाँ गई
यह प्रश्न तेरे से खिचीं रेखा में पाया है.
लहर का कौन सा किनारा है,
समुद्र की थाह को चुप सा पाया है.
गुम हो तुम गर्म हवा की तरह
आसपास शायद मेरा साया है.
तेरे हाथ की तपिश ने
जब मेरी हथेली को सहलाया है
उस तपिश के गर्भ में
मैंने पुनर्जन्म पाया है.
तेरा साथ अँजुरी सा,
मुस्कान के बीच में
अश्रुबिंदु को झिलमिलाते पाया है.
तेरा साथ दिशाहीन सा,
भरी दोपहर में बर्गद की छाँव को
सिमटते पाया है.

दिशाहीन रास्ते पर,
हर रास्ता जाना पहचाना है,
ज़िन्दगी परिचित सी है,
जब से तुझे जाना है.

_____________

6 comments:

Divine India said...

पहली दफा मैं यहाँ आया हूँ लेकिन इतनी भाव मधुरीमा से उक्त कविता आनंद ले कुछ और पढ़ने को दृदय नहीं चाह रहा है…ये लाईन आपकी यादगार हैं--
"जब मेरी हथेली को सहलाया है
उस तपिश के गर्भ में
मैंने पुनर्जन्म पाया है."

राकेश खंडेलवाल said...

दिशाहीन रास्ते पर,
हर रास्ता जाना पहचाना है,
ज़िन्दगी परिचित सी है,

भाव सुन्दर हैं रजनी.

चल रही है ज़िन्दगी
उन राहों पर
जो कहीं नहीं जाती
लेकिन
संतोष है
कि अपनी हैं वे

Reetesh Gupta said...

सुंदर भाव हैं रजनी जी...बधाई !!

Monika (Manya) said...

"सिंदगी परिचित सी है जबसे तुझे जाना है.." कितने अनुराग भरे भाव हैं आपकी कविता में.. बहुत अच्छा लगा यहां रुकना..

Udan Tashtari said...

बहुत खुब. अंतिम पंक्तियों में पूरे भाव निहित हो गये हैं:

दिशाहीन रास्ते पर,
हर रास्ता जाना पहचाना है,
ज़िन्दगी परिचित सी है,
जब से तुझे जाना है.


--बहुत बधाई स्विकारें.

Unknown said...

बहुत बहुत सुन्दर !!