Monday, May 20, 2013

सांझ के रंग

पत्ती पर बीरबहूटी
पकड़ कर बैठी थी एक बूँद
गीली, नम,
पारदर्शी
जिसमें उसको खुद के रंग दिखते थे
लाल, जैसे मोज़ों पर चढ़ती उतरती धूप
काला, जैसे बदन पर उभरता हुआ तिल
मिल जुल कर साँझ का वह रंग
गहरा सिन्दूरी
तलहटी के चश्मे में
जब घुला था
तब गाढ़े अंधेरे में
बीर बहूटी को मिला था
चाँद का टुकड़ा
खाली कलसी सा
जिसके टूटे पैंदे से नज़र आता था
दुनिया का वो छोर
जहाँ साँझ के और रंग नज़र आते थे

3 comments:

Batangad said...

रजनी जी हिंदी भाषा पर लिखे अपने एक लेख पर की गई आपकी टिप्पणी के जरिए आपके प्रोफाइल तक पहुंचा। अच्छा लगा कि कम ज्यादा ही सही आप ब्लॉगिंग में सक्रिय हैं। लेकिन, आपने एक और ब्लॉग बनाया है आओ हिंदी सीखें उस पर कुछ नहीं दिखा। अगर महीने में एक पोस्ट भी हिंदी से संबंधित आए तो कुछ लोगों को मदद मिले और अच्छा संकलन भी बने।

Surinder Singh said...

बहुत खूब...

Unknown said...

Kindly give me some idea how to connect with you so tht I can some possible solutions to my questions.