Saturday, July 10, 2010

अस्तित्व

अस्तित्व मेरा कुछ तुझ से घुला मिला है
यहीं कहीं तुझ में रचा बसा है
आकाश की असीमता में
दूर क्षितिज में उगता ध्रुव तारा सा लगता है,
सूरज की तपती धूप में
झुलसने के बाद
बारिश से भीगी सड़कों की हुमस में
बादलों सा उड़ता है
अपने में ही बांधू तो
बहुत संकुचित हो जाता है
तुझ से मिल कर जब
विस्तार पाता है तो
मेरा हर एक अणु
सृष्टी की कृति बन जाता है।


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3 comments:

डॉ .अनुराग said...

ओर बंध कर भी.कैसा खुला खुला उड़ता है मन

ѕнαιя ∂я. ѕαηנαу ∂αηι said...

बहुत सुन्दर कल्पना या शायद यथार्थ।

आओ बात करें .......! said...

"अणु का शून्य में विलयन"..............

मन को भ्रमित करता है

आकृति में कटाव करता है

'काल' की उपस्थिति दर्ज करता है

अस्तित्व मेटने का दावा करता है.

उस "घोल" में डुबकी से इनकार करता है.........

वो 'उस मिलन' से दूर भागता है.

"काल" के इस षणयंत्र को तोड़ सच का संज्ञान

शून्य में समा जाना ही है अस्तित्व की पहचान!!