Saturday, January 23, 2010

नज़रिया

फ़ुटपाथ के बैंच पर
ज़िंदगी के निचोड़ को
छूटे हुए अखबार की तरह
छोड़ आए थे,
कुछ मेरे विचार थे
कुछ तुम्हारी सोच

तुम्हारी धारणा थी
समाज को बदलना है,
मैं अपनी
परिधि के दायरे को
विकसित करना चाह्ती थी,
कल अखबार बारिश में भीगा,
आज धूप में सूखा,
अब अलावों के बीच सुलग रहा है,
ज़िंदगी का निचोड़
अखबार की सुर्खियों में,
कहीं समाज बदल रहा है और
कहीं मेरी परिधि को और विकसित कर रहा है।

हर दिन सुबह बैंच पर
फैलती हुई धूप के समान

_______________

4 comments:

आओ बात करें .......! said...

नजरिया कुछ बात करने को मजबूर कर रहा है............

परिधि की हर त्रिज्या के पार
विकास के लक्ष्य अपरम्पार
विचार का हो ऐसा विस्तार
आसमां की गहराई में हो साकार
क्षितिज पर वो 'अव्यक्त' विचार-सार

विनोद कुमार पांडेय said...

बढ़िया नज़रिया सुंदर भाव..बढ़िया लगा पढ़ कर लिखते रहिए धन्यवाद रजनी जी

कबीर कुटी - कमलेश कुमार दीवान said...

achchi kavita hai ,savad chitra or saaf bnaye.
shubhkamnayen

संजय भास्‍कर said...

बढ़िया नज़रिया सुंदर भाव..बढ़िया लगा पढ़ कर लिखते रहिए धन्यवाद रजनी जी