Friday, October 23, 2009

फ़ुर्सत के पल

पलाश के दहकते फूल
जब मेरी हथेली पर गिरते हैं,
फिसलते हुए ये जलते सूरज
मेरे मन में परिक्रमा करते हैं ।

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परिधि के घेरे में आ बैठे हैं,
कुछ चिन्ह नियुक्त कर बैठे हैं,
चिन्हों से जूझते हुए
परिधि में खुद को खो बैठे हैं।

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शब्दों का प्रांगण
पहेलियों का आँगन,
चौक जब भी पूरती हूँ,
होता है विचारों का आगमन।

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4 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

पलाश का सुंदर प्रयोग। अच्छे मुक्तक के लिए बधाई॥

श्रीकांत पाराशर said...

Sabdon mein vicharon ka sundar sanyojan. uttam srijan.

Udan Tashtari said...

शब्दों का प्रांगण
पहेलियों का आँगन,
चौक जब भी पूरती हूँ,
होता है विचारों का आगमन।


-नियमित चौक पूरते रहिये...हमें कविता मिलती रहेगी...बढ़िया. :)

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) said...

शब्दों का प्रांगण
पहेलियों का आँगन,
चौक जब भी पूरती हूँ,
होता है विचारों का आगमन।

in panktiyon ne dil chhoo liya....