दर्द का सैलाब रुक गया था
कागज़ के कोने पर
अहसास हो रहा था
कोने से टपक कर गिरी जो एक भी बूँद
अन्तराल की गहराईयों तक जाएगी
जहाँ अँधेरा
काली चिकनी चट्टान सा
शून्य सा जड़
आहिल्या की तरह पाषाण सा होगा
और दर्द की बूँद जब टपक कर गिरेगी
अन्तर्नाद करती हुई
एक उल्का
अनगणित फुलझड़ियाँ सी जलेगी।
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Tuesday, March 17, 2009
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12 comments:
सुन्दर !
घुघूती बासूती
दर्द का सैलाब,
इतना बढ़ गया है।
शब्द बन कागज पे,
कविता गढ़ गया है।
दिल का दरिया आँसुओं का,
इक समंदर बन गया।
आँख से मोती सा टपका,
प्यार खंजर बन गया।
Bahut Sunder
जबरदस्त..!!! वाकई
बहुत खूब बढ़िया कहा आपने
और दर्द की बूँद जब टपक कर गिरेगी
अन्तर्नाद करती हुई
एक उल्का
अनगणित फुलझड़ियाँ सी जलेगी।
lajawab,bahut pasand aayi kavita badhai.
गहन भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति प्रशंशनीय है...
बहुत सुंदर । दर्द की अभिब्यक्ति के लिये उल्का का ऐसा बेहतरीन उपयोग पहली बार देखा । ऐसा ही सुंदर लिखती रहो ।
अरुण अर्णव
अद्भुत !
एक पॄष्ठ में लिख दी है जो लम्बी एक उमर की गाथा
उसके अहसासों का चिट्ठा कितनी बार पढ़ा, पर आधा
शब्दों के तारों में जितनी सिमट गईं हैं नभ गंगायें
और प्रवाहित करें भावना, नित नूतन, यह मांगें वादा
रजनी भाभी जी,
वाह क्या बात कह दी ..
स स्नेह,
- लावण्या
बेहतरीन-सुन्दर अभिव्यक्ति!!
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