Tuesday, March 17, 2009

सैलाब

दर्द का सैलाब रुक गया था
कागज़ के कोने पर
अहसास हो रहा था
कोने से टपक कर गिरी जो एक भी बूँद
अन्तराल की गहराईयों तक जाएगी
जहाँ अँधेरा
काली चिकनी चट्टान सा
शून्य सा जड़
आहिल्या की तरह पाषाण सा होगा
और दर्द की बूँद जब टपक कर गिरेगी
अन्तर्नाद करती हुई
एक उल्का
अनगणित फुलझड़ियाँ सी जलेगी।

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12 comments:

ghughutibasuti said...

सुन्दर !
घुघूती बासूती

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

दर्द का सैलाब,

इतना बढ़ गया है।

शब्द बन कागज पे,

कविता गढ़ गया है।

दिल का दरिया आँसुओं का,

इक समंदर बन गया।

आँख से मोती सा टपका,

प्यार खंजर बन गया।

इरशाद अली said...

Bahut Sunder

कुश said...

जबरदस्त..!!! वाकई

रंजू भाटिया said...

बहुत खूब बढ़िया कहा आपने

Anonymous said...

और दर्द की बूँद जब टपक कर गिरेगी
अन्तर्नाद करती हुई
एक उल्का
अनगणित फुलझड़ियाँ सी जलेगी।
lajawab,bahut pasand aayi kavita badhai.

रंजना said...

गहन भावों की सुन्दर अभिव्यक्ति प्रशंशनीय है...

sportsbharti said...

बहुत सुंदर । दर्द की अभिब्यक्ति के लिये उल्का का ऐसा बेहतरीन उपयोग पहली बार देखा । ऐसा ही सुंदर लिखती रहो ।
अरुण अर्णव

डॉ .अनुराग said...

अद्भुत !

राकेश खंडेलवाल said...

एक पॄष्ठ में लिख दी है जो लम्बी एक उमर की गाथा
उसके अहसासों का चिट्ठा कितनी बार पढ़ा, पर आधा
शब्दों के तारों में जितनी सिमट गईं हैं नभ गंगायें
और प्रवाहित करें भावना, नित नूतन, यह मांगें वादा

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

रजनी भाभी जी,
वाह क्या बात कह दी ..
स स्नेह,
- लावण्या

Udan Tashtari said...

बेहतरीन-सुन्दर अभिव्यक्ति!!