Tuesday, December 19, 2006

नव वर्ष

नव वर्ष के कोरे पन्नों पर भेज रही हूँ गुहार,

जब राह के पँछी घर को लौटें,
जब पेड़ के पत्ते झर-झर जाएँ,
जब आकाश ठँड का कोहरा ओढ़े,
आँखों के पानी से लिखी पाती मिल जाए,
एक उजले स्वप्न सा आँखों में भर लेना,
आँखों की नमी से मुझको भिगो देना ।

नव वर्ष के कोरे पन्नों पर भेज रही हूँ गुहार ,

जब फ़सल कटने के दिन आयें,
धान के ढेर लगे हों घर द्वार ,
लोढ़ी, संक्राति और पोंगल लाये पके धान की बयार,
बसंत झाँके नुक्कड़ से बार-बार,
तुम सुस्ताने पीपल के नीचे आ जाना,
मेरी गोद में अपनी साँसों को भर जाना ।

नव वर्ष के कोरे पन्नों पर भेज रही हूँ गुहार,

जब भी भीड़ में चलते-चलते कोई पुकारे मुझे
और मैं पीछे मुड़ कर देखूँ ,
तुम मेरे कंधे पर हाथ रख कर,
कानों में चुपके से कुछ कह कर,
थोड़ी देर के लिये अपना साथ दे जाना,
भीड़ के एकाकीपन में अपना परिचय दे जाना ।

नव वर्ष के कोरे पन्नों पर भेज रही हूँ गुहार.

Saturday, December 02, 2006

दूज का चाँद

झील में उतरा है
दूज का चाँद ,
चाँदी की लकीर है
नीर में लिपटी हुई ।

शांत पानी की निश्चल स्त्ब्धता
उजाले को गोद में लिए बैठी है,
पानी को सहलाती ये उँगलियाँ
विचलित सपनों को मुट्ठी में बटोर रही हैं ।

बिखरे हुए रंग हैं पानी के कैन्वस पर,
भावों की तूलिका को पकड़े तम्हारा नाम लिख रही हूँ,
हर पल की भेंट को कैन्वस पर उतार रही हूँ,
जीवन की इस गहरी सतह पर
दूज के चाँद को उतार रही हूँ,
चाँदी की लकीर है या
मन से लिपटी अम्बर की परी कथा है कोई ?

Tuesday, November 28, 2006

कुछ हायकु

१.
चौबारे तले
पीली निबोली झरी
बूढ़ा था नीम

२.
पतझड़ में
पत्ते गिरे तरू से
मैंने पहने

३.
सुर्ख सूरज
साँझ हुई गुलाबी
नयन बसी

४.
क्षणिक भ्रम
मीठी लगी मुस्कान
निकला चाँद

५.
भोज पत्र पे
रचे थे महाकाव्य
आज भी ज़िन्दा

६.
नव निर्माण
सदी का पृष्ठों पर
मिट रहा है

Sunday, November 19, 2006

जाते पतझड़ की शाम ...



हर मौसम अपनी अनूठी शामें और सुबह ले आता है. पतझड़ भी यहाँ आया और अब जा रहा है. जाते-जाते आगाह कर गया कि कोने पर ही शरद खड़ा है जो आने वाला है.

कनाडा और अमरीका में पतझड़ अपने साथ रँगों की इतनी बौछार ले आता है कि ऐसा लगता है जैसे भगवान फ़ुर्सत से बैठ कर कैन्वस पर तूलिका से रँगों का मजमा लगा रहें हैं । जैसे-जैसे दिन छोटे और रातें लम्बी होने लगती हैं, वैसे-वैसे पत्तियों के रँग बदलने लगते हैं. हरे रँग की पत्तियाँ लाल, पीली भूरी,सुनहरी हो जाती हैं. यह मेपल, ओक,हिकोरी,डागवुड, ऐश, पोपलर आदि वृक्षॊं मॆं पाया जाता है. पतझड़ को यहाँ fall कहते हैं. Fall Colors कितने गहरे या कितने फ़ीके होंगे वो मौसम, तापमान,बारिश जैसे कारणों पर निर्भर करता है.

आज मैं बैठी क्षितिज पर डूबते सूरज की भाव-भंगिमा को निहार रही थी. लग रहा था सूरज आज पत्तियॊं में कैद हो गया है, वो भी जाने को राज़ी नहीं था. मैं अपने कुत्ते 'विंसटन' के साथ बैठी सूरज की कशिश देख रही थी. हमारे कुत्ते का नाम विंसटन है पर विंसटल चर्चिल जैसे कोई गुण नहीं हैं. नाम हमारे बेटे और बिटिया नें सर्वसम्मति से रखा और हम दोनों का उस में कोई हाथ नहीं था । कुछ दूर पर एक गिलहरी को चीड़ के वृक्ष से गिरा 'पाइन कोन' मिल गया था, उसी को ले कर कुट-कुट कर रही थी. गिलहरी यहाँ पर ज़्यादातर मटमैली होती हैं. भारत में जो देखीं हैं थोड़े और हल्के रँग की होती हैं और पूँछ पर तीन धारियाँ होती हैं. विंसटन जो गिलहरी को कोन खाते देख रहा था उस की ओर लपकने के लिए तैयार बैठा था, अब राजनीतिज्ञ जैसे कोई गुण होते तो उसे पहले पटाता और फ़िर 'कोन' खोंस लेता.

हल्की सी खुनक हवा में बस रही थी. मुझे अंदर जाने के लिए बाध्य कर रही थी. आकाश में पक्षियों का झुण्ड अपने नीड़ की ओर जा रहा था. हरी घास पर बिछी लाल, पीली पत्ति्याँ लोटने के लिए निमंत्रण दे रहीं थी. ठँड से बचने के लिए मैं अपने को अपनी ही बाँहों के घेरे में कसती जा रही थी. हार कर अन्दर जाने के लिए उठी, कुछ लाल पीली पत्तियाँ मुट्ठी में बँद कर के पतझड़ को मन में अंकित करना चाह रही थी. विंसटन भी कुछ सूखे पत्ते अपने से चिपकाए पतझड़ को घर में ले आया. ये पत्ते कुछ दिन बाद सूख कर झीने हो जाएँगे पर कुछ दिन के लिए ये मौसम और ये रँग-बिरँगी पत्तियाँ साथ रह जाएँगी.

Thursday, October 26, 2006

गली

इस कोने से उस कोने तक
इस मकान से उस चौराहे तक
हर रोज़ बाँग लगाती है ज़िन्दगी
गली में कस्बे सी समाती है ज़िन्दगी
धूप के साथ सरकती चारपाईयाँ
खोमचे वालों की घूमती रेढियाँ,
भुनती शकरगँदी, चने और मक्के,
मौहल्ले के अधपके किस्से और
सिलाइयों में बुनती कहानियाँ.
धूप हर घर में झाँक जाती है,
दस्तक दे कर सब को बाहर बुला लेती है,
साँझ तारों को बुला लाती है
रात भोर का हाथ थामें
गली में य़ूँ ही फेरी लगाती है.
इस ठिये से उस ठिये तक,
यूँ तो बहुत चली है ज़िन्दगी
फ़िर भी लगता है
दो पल में ही गुज़र गई ज़िन्दगी

Friday, October 20, 2006

दीपावली की शुभ कामनाएँ

कनक, जौ की बालियाँ हँसी,
वन्दनवार बाँध कर देहरी सजी,
तारे बिखरे जब धरा पर तो
रँगोली में रँगों की धनक रची.

दिये पूर कर सजे हर कोने में,
टिमटिमाए दिये हर कोने में,
अमावस का पर्व आया, उल्लास लाया,
आशा को पिरोया मन के हर कोने में.

य़ूँ ही आशा बनी रहे हर क्षण,
गुँथे वेणी गेंदे और गुलाब से हर पल,
दीपावली जब भी आए
अमावस में दूज का चाँद खिले हर पल

Sunday, October 01, 2006

एक पुरानी कविता

कविता कुछ पुरानी है,
सिराहने रखी किताब के पन्नों से,
हर दिन झाँकती है,
उम्र के साथ धूमिल होती
अस्पष्ट लकीरें,
गुलदावरी के समान अभी भी
महकती हैं,
सूखी पत्तियों की नाज़ुक
पाँखुरी में बैठी ज़िन्दगी,
धीमी होती नब्ज़ को
टटोलती है.

Wednesday, August 30, 2006

तुम

जब आँखों से ओझल होता है वो कोना,
तुम उस मोड़ पर नज़र आते हो.
जब बहुत याद आते हो तुम,
सन्नाटे के शोर में गूँजते नज़र आते हो.
जब चाँद का प्रतिबिम्ब होता है कुछ धुँधला,
तुम ख्वाब बन पानी पर उड़ते नज़र आते हो.
जब आँगन में सजाते हैं आहटों को,
तुम सामने से आते दिखाई देते हो,
सिरफ़िरी धूप का कोना पकड़
मेरे माथे पर बिखर जाते हो.

Wednesday, August 09, 2006

भ्रम

देखो सखी सूरज ने आज मुझे जगाया
ओस की बूँदों ने पैरों को गुदगुदाया
गैंदे और गुलाब ने मखमली धूप को सजाया
मेरे हाथों की तपिश को गुलाल बना
अपनें मुख पर लगाया

सुबह की इस आब को,
स्थिर क्षण की इस आस को,
जीवन भर के इस प्रयास को,
नक्षत्र बना आकाश में टांक दिया है
जब टूटेगा, तो अनकही इच्छा बना
फ़िर इस सुबह को बुला लूँगी
एक और क्षणिक भ्रम बना
सूरज को फ़िर बुला लूँगी ।

____________________________________

Wednesday, August 02, 2006

मेरी कहानी

तुम नहीं आओगे,
तुम नहीं सुनोगे,
ये कहानी जो मैंने लिखी है
पानी की सतह पर,
लहरों की चपलता पर,
ढलते सूरज की सुनहरी धूप पर,
भुल से कभी जो किनारे पर आओ
और मेरी आँखों का समुँदर देखो,
और उसमें दूर तक क्षितिज को ढूँढो
तो रेत में दबे शँख को निकाल लेना
उसमें जब लहरों का शोर सुनोगे
तो मेरी कहानी तुम तक
अथाह अनन्त से बहती हुई
स्रिष्टी के हर कण में मिल जाएगी.

Wednesday, July 19, 2006

अभिमान

यह अभिमान मेरा
है मुखरित मौन मेरा

ओस की बूँद की तरह
बैठा है हरी दूब पर
ठँडा और नम सा है
ये अभिमान मेरा

तुम्हारी नज़र जब मुझे
ढूँढती है यादों के मेले में
तीखा और बेचैन दर्द सा है
ये अभिमान मेरा

आँगन में किलकती वीरानियाँ
जब तुलसी के आगे लौ में सुलगती हैं
कार्तिक की खुनक और लौ की गरमाहट सा है
ये अभिमान मेरा

तुम्हारी हर सोच में
मेरे को नया आयाम देना
अविष्कार के उल्लास और नूतन सा है
ये अभिमान मेरा

तुम्हारे संदर्भों में जब-जब
मेरे को आकाश मिला
कितना दीन और स्वाभिमान बन गया है
ये अभिमान मेरा

यह अभिमान मेरा
है मुखरित मौन मेरा.

गर्मी की एक दोपहर


कैसे हैं ये दिन, खोखले बाँस से बजते हैं
गुम हवा में टूटी आस से चुभते हैं

गलियों में हवा साँय-साँय चलती है
कैसी भटकन है, मरीचिका तो मन में बसती है

कुतरते दिन,लम्हा-लम्हा गिनते हैं
तुम्हारे साए के साथ अब भी चलते हैं

तपती ज़मीन, पाँव नहीं पड़ते हैं
फफोले पड़ गए,मेघ को तरसते हैं ।

Tuesday, June 27, 2006

अभिव्यक्तियां

सांझ ढलते ढलते मेरे
पदचाप ले गई
मेरी झोली में
गुलमोहर व बबूल के फूल दे गई
तुम्हारी याद आई तो
भीगी पलकों की जगह
नीले आसमान की गहराई दे गई
_____________________

तुमको पकड़ने चली थी ओ सूर्य
पाया तो केवल
अंजुलि भर
रंग बिरंगा क्षितिज
तुम्हारे ताप में सोने चली
तॊ संध्या
अपनी ओट में ले बैठी तुम्हे
आज तुम्हारे
अलसाए आवरण को निहारने चली
तो रात की कालिमा
अपने आलिंगन में ले चली मुझे।
______________________

खुलती जाती हैं परतें इस अंधेरे की
कि शायद कोई सुबह लौट आए
हर रोज़ बहाना बना उसे मना लाते हैं
कि शायद वो ही ख्वाब बन मेरी नींदों में लौट आए
आकार जब धुँधले हो जाते हैं
तो रंगो को बुला लाते हैं
शायद वो ही मेरी तूलिका बन
मेरी तस्वीर बना जाए।
__________________

यह साँझ जाते हुए बूढ़ी आँखों को फिर
सुनहरा आकाश दिखा जाती है
अपनी मुठ्ठी में अँधेरे को समेटते हुए
जुगनू की चमक दिखा जाती है
चेहरे की झुर्रियों में कहानियाँ लिख कर
नया इतिहास बना जाती है
आने वाले की खोज में मैं हूँ या नहीं
बूढ़ी आँखें ढलते सूरज से पूछ जाती हैं
कितनी परिभाषाओं से यह वर्तमान बना है
इसका विश्लेषण शरद ऋतु की पूर्णिमा पर छोड़ जाती है।
______________________________

Sunday, June 25, 2006

सीप में मोती

मैंने अनजाने ही भीगे बादलों से पूछा
छुआ तुमने क्या
उस सीप में मोती को
बादलों ने नकारा उसे
बोले दुहरी है अनुभूति मेरी
बहुत सजल है सीप का मोती
मेरा सोपान नहीं
स्वप्न नहीं
अपने में एक गिरह लिए रहता है
समुद्र का शोर लिए रहता है
मैं छू भी लूँ उसको
तो भी वो अपने अस्तित्व लिए रहता है
कथन हो या कहानी वो
एक पात्र बना रहता है
अँजुलि भर पी भी लूँ
तो भी वो एक मरुस्थल बना रहता है
यह वो एकाकी है जो मुझे छूती है
मुझे नकार मुझे ही अपनाती है
सीप में मोती बन स्वाति नक्षत्र को दमका जाती है
मेरा ही पात्र बन मुझे ही अँगुलि भर पानी पिला जाती है
इसी गरिमा को अपना मुझे ही छू जाती है।
मैं यही अनुभूति लिए
नकारते हुए अपनाते हुए
भीगते हुए बहते हुए
सीप में ही मोती बन जाती हूँ।

कुछ नहीं चाहा है तुमसे

कुछ नहीं चाहा है तुमसे
पर तुम एक खूबसूरत मोड़ हो
जहाँ ठहरने को मन करता है
कुछ पल चुनने का मन करता है
तुम्हे पकड़ पास बिठाने को मन करता है
कुछ नहीं चाहा है तुमसे
तुम एक लगाव हो
जिसे कुछ सुनाने को मन करता है
कुछ भी कहने को मन करता है
तुम्हे पुकार बस हाँ या ना कहने को मन करता है
कुछ नहीं चाहा है तुमसे
तुम एक पर खूबसूरत मोड़ हो
जहाँ ठहरने को मन करता है।