Wednesday, July 19, 2006

गर्मी की एक दोपहर


कैसे हैं ये दिन, खोखले बाँस से बजते हैं
गुम हवा में टूटी आस से चुभते हैं

गलियों में हवा साँय-साँय चलती है
कैसी भटकन है, मरीचिका तो मन में बसती है

कुतरते दिन,लम्हा-लम्हा गिनते हैं
तुम्हारे साए के साथ अब भी चलते हैं

तपती ज़मीन, पाँव नहीं पड़ते हैं
फफोले पड़ गए,मेघ को तरसते हैं ।

No comments: