Wednesday, July 19, 2006

अभिमान

यह अभिमान मेरा
है मुखरित मौन मेरा

ओस की बूँद की तरह
बैठा है हरी दूब पर
ठँडा और नम सा है
ये अभिमान मेरा

तुम्हारी नज़र जब मुझे
ढूँढती है यादों के मेले में
तीखा और बेचैन दर्द सा है
ये अभिमान मेरा

आँगन में किलकती वीरानियाँ
जब तुलसी के आगे लौ में सुलगती हैं
कार्तिक की खुनक और लौ की गरमाहट सा है
ये अभिमान मेरा

तुम्हारी हर सोच में
मेरे को नया आयाम देना
अविष्कार के उल्लास और नूतन सा है
ये अभिमान मेरा

तुम्हारे संदर्भों में जब-जब
मेरे को आकाश मिला
कितना दीन और स्वाभिमान बन गया है
ये अभिमान मेरा

यह अभिमान मेरा
है मुखरित मौन मेरा.

1 comment:

रत्ना said...

दोनों कविताएं सुन्दर है ।