Friday, December 18, 2009

मत्स्य

रात का आखिरी पहर जब और गाढ़ा हो,
जब हाथ को हाथ न सूझे,
अंधेरे में मुट्ठी भर शब्द
मोगरे की तरह महक उठे,
अंधेरे की रेशमी तह
चूम कर बलैयां लेती रहें,
तुम सिरहाने बैठ कर
शांत, निर्लिप्त, विरक्त
समुद्र में नौका खेते रहो
और,
मैं फेनल से भीगी मत्स्य
अर्जित कर दूँ तुम्हें वह बूँद
जो अमृत सी कंठ में बिंधी रहे,
प्यास बुझाती रहे युगों तक
आदि से अनंत तक।

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Tuesday, December 01, 2009

गुलाबी पतझड़

कुनमुनी रातें
अलाव सिकी यादें,
कुलमुलाती हैं
सखी की बातें

ठौर-ठौर पिये
चाँदनी का दोना लिये,
मढ़ती रात
तारों के धागे लिये

पोरों पर कसती
रानी कहानी रचती,
सूखी पीली पत्ती
अम्बर पर लिखती

मन गुंथी सांझ
झर गए पात-पात,
गुलाबी पतझड़ जाए
सखी घर याद आए।

Sunday, October 25, 2009

गाँठ

मेरे सर्वस्व की गाँठ
पानी, आग, धरा, पंचतंत्रो से गुँथी है,
अक्षत, रोली, मौली, धूप, दीप
से बनी है,
देवी, देवताओं, खड़िया से दीवार पर सजी है,
पेड़ों की फ़ुनगी पर नभ से बंधी रहती है
खुलती है तो छाँव सी धूप में घुल जाती है,
दिन जब चढ़ता है तो
बड़ या पीपल पर मन्न्त सी चढ़ जाती है।

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Friday, October 23, 2009

फ़ुर्सत के पल

पलाश के दहकते फूल
जब मेरी हथेली पर गिरते हैं,
फिसलते हुए ये जलते सूरज
मेरे मन में परिक्रमा करते हैं ।

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परिधि के घेरे में आ बैठे हैं,
कुछ चिन्ह नियुक्त कर बैठे हैं,
चिन्हों से जूझते हुए
परिधि में खुद को खो बैठे हैं।

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शब्दों का प्रांगण
पहेलियों का आँगन,
चौक जब भी पूरती हूँ,
होता है विचारों का आगमन।

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Thursday, October 08, 2009

मूक अभिवादन

घर की परिधि के दायरे
मेरे मानचित्र पर बिंदु से
उस पगडंडी पर रहते हैं
जहाँ सूर्योदय रोज़ तुम्हारे द्वार पर
लौटती सूर्य किरण की प्रतीक्षा करता है
पहाड़ी के उस ओर से
बादलों की टोली को हवा धकेल ले आती है
और
गुलदावदी के फूल हवा को छुपा कर
यूँ ही लहकते फ़िरते हैं

मैं और मेरा गुमान
तुमसे अनभिज्ञ
चुपचाप उस पगडंडी पर
मील पत्थर रखते जाते हैं,
क्षितिज को सोपान बना कर
परिधि को विस्तृत कर नित
मूक अभिवादन करते हैं।
मैं और मेरा गुमान
तुमसे प्यार किया करते है।

Wednesday, September 30, 2009

क्वार गीत

रास्ते में जब रुकी तो
दीवारों के कान उग आए थे
पत्तों की सरसराह्ट थी
आँगन में बुदबुदाहट थी
और
दीवारों की आँखों में रंग भर गए थे
कपाट पर कूची से बूटे खिले थे
सफ़ेद पुती दीवार पर जलाशय बने थे
बाहर
अहाते में तिमिर का कोलाहल बोल रहा था
झींगुर की आवाज़े थीं
चन्द्रकिरण की आने की आह्टें थी

रास्ते में जब रुकी तो
मेरे अंदर डूब गई थी सब आवाज़ें
उग आया था एक दरख्त जहाँ
बसती है लाल गौरैया
गाती है वो क्वार गीत जो
पतझड़ में भी बसंत का आभास दिला जाता है।

Thursday, September 17, 2009

आसमानी फूल

सेतू के किनारे खिले थे
कुछ आसमानी फूल,
पानी में बिम्बित था
सुनहरी आकाश अपार,

मैंने आकाश की असीमता
उठा के दी थी तुम्हे,
तुम्हारी असीमता में मुझे मिले
कुछ फूल उपहार में,
आँगन में मेघदूत मिले
काले और बौराए से,
और
संदेसों की झारी में
गुलाब की कुछ पाँखुरी पड़ी

काली स्याह रात में
जब असीमता ढली,
चाँदनी दबे पाँव
ले आई थी कहानी तारों की
और एक उल्का खिली थी
मेरे सिरहाने ले के
कुछ आसमानी फूल

Saturday, August 01, 2009

तमन्ना

एक तमन्ना छोटी सी,
बड़ी आँखों वाली लड़की की
खामोशी में रहती थी,
लड़की के गालों के गुच्चों में
मुस्कराहट में छिपी रहती थी,
लड़की के काले बालों की
चोटी में फूल सी गुँथी रहती थी

एक तमन्ना बड़ी सी,
रसॊई के आले में
आचार के मर्तबान में रहती है
फ़टी रसीद सी
पंसारी की दुकान में रहती है
माधो, बिट्टो की
शादी के लेन -देन में रहती है
बगीचे के फव्वारे के
नीचे पानी में पड़े सिक्कों में रहती है

छोटी तमन्ना चुलबुली सी
बड़ी तमन्ना संजीदी सी
हर साँझ छुप्पा छुप्पी खेलती हैं
कुट्टी, अब्बा कर के रात को
सपनों में चाँद पर बैठी मिलती हैं।

Friday, July 03, 2009

जेठ बुलाए

उड़ती फ़ूस
कटी-कटी धूप
गुड़-गुड़ करती
बाबा के हुक्के की मूँज

जेठ दुपहरी
छाँव तले गिलहरी
किट-किट करती
अम्मा की सुपारी दिन सून

लम्बे दिन
लम्बी तारीखें
औंधे मुँह ऊँघती
जीजी की किताबें, परचून

गुम हवा
झुलसी धरा
मेढ़ पर सोचती
उसकी आँखें लगी, सब सून
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Sunday, April 19, 2009

दुआ

बचपन से दुआएँ साथ चलती हैं

आँगन को बुहारती
टीन के डिब्बे में आम की पौध सी पलती हैं

मेरे हाथ की लकीरों में
गली में स्टापू सी खेलती हैं

रात में सपनों सी
दिन में पूजा के आचमन सी मिलती हैं

बाँस के झुरमुट में
मेरे तलवे के नीचे धूप सी खिलती है

नन्हे पैरों से विचरती
आँगन में ओस की बूँदों सी झरती हैं

बट पर मन्नतों में
मेरी कलाई में मौली से बँधी मिलती है

बचपन से दुआएँ साथ चलती हैं
दीवारों पर फूल के बूटों सी मिलती हैं।


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Tuesday, March 17, 2009

सैलाब

दर्द का सैलाब रुक गया था
कागज़ के कोने पर
अहसास हो रहा था
कोने से टपक कर गिरी जो एक भी बूँद
अन्तराल की गहराईयों तक जाएगी
जहाँ अँधेरा
काली चिकनी चट्टान सा
शून्य सा जड़
आहिल्या की तरह पाषाण सा होगा
और दर्द की बूँद जब टपक कर गिरेगी
अन्तर्नाद करती हुई
एक उल्का
अनगणित फुलझड़ियाँ सी जलेगी।

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Friday, January 16, 2009

सुरमई शाम

चुपके से सुरमई हो गयी थी शाम
रात ने सर रख दिया था काँधे पर
तारों ने बो दिये थे चन्द्रकिरण से मनके वीराने में
धवल, चमकीली चाँद की निबोली
अटकी रही थी नीम की टहनी पर
नीचे गिरी तॊ बाजूबंद सी खुल गई
सुरमई शाम रात के काँधे पर
सर रख कर सो गई ।

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