Saturday, November 27, 2010

नागफनी

देखूँ,
यदि आज मैं
गहरे नीले अम्बर को भेद सकूँ,
बरखा की बौछारों में
अपने अन्तर्मन को टटोल सकूँ,
सदियों से मूक मैं
इस धरती की व्यथा को बोल सकूँ,
तो
मैं नागफ़नी,
इन काँटों को झर कर,
तुम्हारा कोमल स्पर्श पा कर
अथाह नील,शांत समुद्र में डूब कर,
गौरांवित हो जाऊँगी और
तुमको अपने में समा लूँगी

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Saturday, August 21, 2010

एक प्रयास

एक सजल, निश्चल प्रयास हर दिन का
हर दिन हिमालय की चोटी पर चढ़ना
विश्रांत, थकी देह को चूर-चूर होते देखना
समतल, नगण्य और मौन विस्तब्धता
फिर उठाती है
एक पानी की बूँद
जिसके स्रोत से फूटते हैं
अनेक मीठे झरने जो
इस चराचर को तृप्त कर के
मेरे भीतर के बुद्ध को
जलमग्न कर देते हैं।

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Friday, August 13, 2010

आसपास

लगता है क्यों कि तुम हो आसपास
इन्द्रधनुष का एक रंग जो
लाल मौली सा खिंचा था क्षितिज के आसपास
बांध दिया था सूरज को उस मौली से आज,
मैं हरी दूब सी बिछी
पकड़े हुई थी दूसरा सिरा
सूरज को गांठ में बांध कर
नितल में छोड़ आई थी,
तुमने बदमाशी की थी,
रात को तुम गहराई से निकाल लाए थे,
आज पत्ते से लटकी ओस की बूँद में
तारे सा सूरज झिलामिला रहा था।
जब उसको देखा था तो
जाने क्या जता रहा था,
अपने पास बुला रहा था,
क्यों
लगा कि तुम हो आसपास।

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Tuesday, August 10, 2010

विनीत प्रार्थना

सफ़ेद कतरने,
हवा में लहरा रही थी,
हवा की दिशा बता रही थी।

मैं, पर,
हवा की विपरीत दिशा में चल रही थी,
मैं पकड़ना चाह रही थी,
हवा में उड़ते हुए सफ़ेद बुढ़िया के बाल,
वो नव पुलकित अहसास,
जो बिछे थे गुलाबी चेरी फूलों के साथ।
चिड़िया की चोंच में पानी की बूँद,
झिलमिला रही थी जो
मंगल तारे के समान,
शहद सी मीठी आवाज़ें जो
घुल रही थी मेरी परछाईंयों के संग।

ये भूल-भुलैया
ये पल के पड़ाव
हवा की गाँठ से रहते हैं
उन्मुक्त गगन में
जब खुलते हैं
मेरे मन की शिलालेख पर
गोधुली की वेला में
सूर्य किरण से लिख जाते हैं
विनीत प्रार्थना एक और दिन की।


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Saturday, July 10, 2010

अस्तित्व

अस्तित्व मेरा कुछ तुझ से घुला मिला है
यहीं कहीं तुझ में रचा बसा है
आकाश की असीमता में
दूर क्षितिज में उगता ध्रुव तारा सा लगता है,
सूरज की तपती धूप में
झुलसने के बाद
बारिश से भीगी सड़कों की हुमस में
बादलों सा उड़ता है
अपने में ही बांधू तो
बहुत संकुचित हो जाता है
तुझ से मिल कर जब
विस्तार पाता है तो
मेरा हर एक अणु
सृष्टी की कृति बन जाता है।


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Tuesday, April 13, 2010

राही

मुझको सूरज की किरण दे दो,
आकाश का नीला विस्तार दे दो,
मैं हूँ एक पाखी,
जीने के लिए ऊँची उड़ान दे दो.

मैं अपने कोमल पँखों को फ़ैलाऊँगी
बादलों के साथ बहुत दूर तक जाऊँगी
कोई साथी नहीं होगा,
इस सफ़र के अनंत बिंदु तक जाऊँगी.

पेड़ के नीचे ठंडी हवा जब बहेगी
पलकें बोझिल हो कर उनींदे सपने देखेंगी
कुछ देर सुस्ता कर,
सपनों में पथ के पाथेय को बुला लेंगी.

दूर दराज़ जब राह को तकूँगी
झूले की पींगों से और उपर उड़ूँगी
आसमान को छूती हुई
राह को दो पल में कनक सी चुग लूँगी


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Saturday, March 27, 2010

अनकहे बोल

मेरे मानस में अनमने बोल हैं
मन के क्षितिज पर अनकहे बोल हैं
कहती हैं कहानियाँ
यह मेरे मन के चोर हैं
अनबुझी सांस की पोर हैं
जीवन के प्रवाह के छोर हैं
फिर
सासें क्यों नही आती
जब गुजरती है मेरी छाया
तुम्हारे कदमों से लिपट के
ढलती है मेरी काया
तुम्हारे नयनों मे सिमट के
सोचती है मेरी भाषा
तुम्हारे शब्दों से निखर के।

समय के अवगुंठन
सिन्दूरी क्षितिज की प्रतीक्षा में
जैसे
रेतीले कण लहरों के साथ
हर बार लौट आते हैं
सूरज की परिक्रमा कर
मेरे विराम तुम पर पूर्ण हो जाते हैं

आकाश के विस्तार में तुम्हारे अर्ध सत्य
मेरे सत्य के बोध हो जाते हैं
तुम्हारे जीवन के केन्द्र बिन्दु
मेरे जीवन की परिधि हो जाते हैं

जीवन की अनबुझी सांसों के मौन
मेरे बोल बन जाते हैं ।

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Tuesday, March 16, 2010

नीम

कागज़ पर कुछ टेढ़ी मेढ़ी लकीरें
नक्शे पर नीली, हरी लकीरें
बच्चों के मन में गढ़ गई थीं,
आज लकीरें सुलग रही थीं
बनती बिगड़ती बटोही सी
भटक रही थीं।

खबर थी,
सीमा को कल मोड़ दिया था
आज पहाड़ के उस पार पहुँचा दिया था
गुड़हल के फूल,
नीम का पेड़,
कल छज्जू मियाँ की खपरैल और
अहाते में बिछी धूप को
समेट कर
खेमे में गाढ़ दिया था।

खेमे से
दूर-दूर तक दिखता है
लकीरों का ताना बाना
क्षितिज, एक नितांत सीमा
जहाँ से सूर्य किरण
थकी हारी अंदर आती है,
खेमे के, वृत में
गुड़हल के फूल
और नीम के बौने पेड़
को सींचती है,
नीम का बौना पेड़
अब पनपता नहीं
ठूँठ सा अब
खेमे में ही रहता है
रोज़ जल जाता है
नीम का पेड़ कट-कट कर
गिर जाता है।
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Friday, March 12, 2010

बात

बातें, बातों और बातों के पीछे
खूबसूरत मंज़र भटकते हैं
खामोश से,
बंद किवाड़ के पीछे
ठाकुर जी से रहते हैं,
हर दिन नए जंगल बनते हैं,
दरदरे जंगल में चीड़ के पेड़
धूप छाँव का खेल खेलते हैं
रेशम के तार जब सिरा ढूँढते हैं
मन से उलझ जाते हैं
शाख पर तब बहुत से
ज्योति पुंज नज़र आते हैं

बारिश की बूँदों सी बातें
टिप-टिप कर के झरती हैं
मेरे अहसास भिगोती हुई
खिलती धूप की प्रतीक्षा करती हैं।

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Monday, March 01, 2010

पलाश के फूल

कोयल कुहकी
अमुआ महकी
पोखर पीला
सूरज निकला
ले फूलों के कलश कई

ड्योढ़ी फैले
अंगना खेले
नव पल्लव
पक्षी का कलरव
उल्ल्सित बसंत से खेल कई

गुब्बारे फूटे
गुलाल, रंग छूटे
अब गली ढूँढॆ
नुक्कड़ ढूँढे
वह दिवस जब बिखरे थे रंग कई

चौबारे के रंग
घर में हैं बंद
सूखी होली
जाए अबोली
बुलाए दर पर छपे पलाश के फूल कई।


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Wednesday, February 17, 2010

रोशनी की लकीरें

कुछ दूर रख कर
कुछ फ़ासले से देखा
कागज़ पर उतरते नक्श को

धरती पर उतरती सूरज की छाया
जैसे बदलती हर पहर के रूप
गाढ़े रंग, हल्के रंग
आढ़ी, तिरछी रोशनी की लकीरें
सब उतर गए थे छवि के संग
उन के बीच में थी
वो
उदास आँखें जो
बीन रहीं थी
बसंत में खिले
रोशनी से भरे
सफ़ेद चेरी के फूल।

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Wednesday, February 10, 2010

चिरैया

फुनगी पर बैठी थी चिड़िया,
लपकी थी नभ की ओर
चुराई थी सांझ की लाल डिबिया
उड़ाई थी, फुटकायी थी
बनी थी गुलाबी गुलाल चिरैया।

ले के सांझ के संदेसे
लौटी थी अपने नीड़
पातियों को किया कंठबद्ध
स्वर दिया, संगीत दिया
बनी थी काली कोयल गौरया

भोर के पास पहुँचाने थे संदेसे
तड़के उठ कर स्नान किया
मंदिर की फेरी लगाई
प्रार्थना की, घंटी बजाई
बनी थी सौम्य दादी चिरैया

पगडंडी पर भागी
अम्बर से कलसी ढुलकाई
सूरजमुखी को सींच कर
इतराई, फ़िर भरमाई
बनी थी पागल पीत सोनचिरैया

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Wednesday, January 27, 2010

गुल्लक

लम्हे, गुल्लक में
रेज़गारी से खनकते हैं
हर दिन रुई से भरी दोहड़
के लिए ललकते हैं।
एक लम्हा,
जब आँखें उस पर टिक जाती हैं,
लाल, पीले फूलों वाली,
किस, किस पगडंडी से गुज़रती है,
ठिठुरन में जलते अलावों सी
धूप की सगी बहन लगती है,
मुलायम सी रेशमी तारों की
देवों के दुशाले सी लगती है,
उड़न खटोले सी जादुई
आँखों में सपनों सी विचरती है,
दुकान में वो ही,
अमूल्य निधि दिखती है,
कोहरा भी छट जाता है,
आज का लम्हा भी गुल्लक
में जमा हो जाता है,
खनकता है,
कल शायद....


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Saturday, January 23, 2010

नज़रिया

फ़ुटपाथ के बैंच पर
ज़िंदगी के निचोड़ को
छूटे हुए अखबार की तरह
छोड़ आए थे,
कुछ मेरे विचार थे
कुछ तुम्हारी सोच

तुम्हारी धारणा थी
समाज को बदलना है,
मैं अपनी
परिधि के दायरे को
विकसित करना चाह्ती थी,
कल अखबार बारिश में भीगा,
आज धूप में सूखा,
अब अलावों के बीच सुलग रहा है,
ज़िंदगी का निचोड़
अखबार की सुर्खियों में,
कहीं समाज बदल रहा है और
कहीं मेरी परिधि को और विकसित कर रहा है।

हर दिन सुबह बैंच पर
फैलती हुई धूप के समान

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