Wednesday, January 27, 2010

गुल्लक

लम्हे, गुल्लक में
रेज़गारी से खनकते हैं
हर दिन रुई से भरी दोहड़
के लिए ललकते हैं।
एक लम्हा,
जब आँखें उस पर टिक जाती हैं,
लाल, पीले फूलों वाली,
किस, किस पगडंडी से गुज़रती है,
ठिठुरन में जलते अलावों सी
धूप की सगी बहन लगती है,
मुलायम सी रेशमी तारों की
देवों के दुशाले सी लगती है,
उड़न खटोले सी जादुई
आँखों में सपनों सी विचरती है,
दुकान में वो ही,
अमूल्य निधि दिखती है,
कोहरा भी छट जाता है,
आज का लम्हा भी गुल्लक
में जमा हो जाता है,
खनकता है,
कल शायद....


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Saturday, January 23, 2010

नज़रिया

फ़ुटपाथ के बैंच पर
ज़िंदगी के निचोड़ को
छूटे हुए अखबार की तरह
छोड़ आए थे,
कुछ मेरे विचार थे
कुछ तुम्हारी सोच

तुम्हारी धारणा थी
समाज को बदलना है,
मैं अपनी
परिधि के दायरे को
विकसित करना चाह्ती थी,
कल अखबार बारिश में भीगा,
आज धूप में सूखा,
अब अलावों के बीच सुलग रहा है,
ज़िंदगी का निचोड़
अखबार की सुर्खियों में,
कहीं समाज बदल रहा है और
कहीं मेरी परिधि को और विकसित कर रहा है।

हर दिन सुबह बैंच पर
फैलती हुई धूप के समान

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