झील में उतरा है
दूज का चाँद ,
चाँदी की लकीर है
नीर में लिपटी हुई ।
शांत पानी की निश्चल स्त्ब्धता
उजाले को गोद में लिए बैठी है,
पानी को सहलाती ये उँगलियाँ
विचलित सपनों को मुट्ठी में बटोर रही हैं ।
बिखरे हुए रंग हैं पानी के कैन्वस पर,
भावों की तूलिका को पकड़े तम्हारा नाम लिख रही हूँ,
हर पल की भेंट को कैन्वस पर उतार रही हूँ,
जीवन की इस गहरी सतह पर
दूज के चाँद को उतार रही हूँ,
चाँदी की लकीर है या
मन से लिपटी अम्बर की परी कथा है कोई ?
Saturday, December 02, 2006
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4 comments:
झील में उतरा है
दूज का चाँद ,
चाँदी की लकीर है
नीर में लिपटी हुई ।
--बहुत सुंदर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति है, बधाई।
--समीर
शांत पानी की निश्चल स्त्ब्धता
उजाले को गोद में लिए बैठी है,
पानी को सहलाती ये उँगलियाँ
विचलित सपनों को मुट्ठी में बटोर रही हैं ।
बहुत सुन्दर....पर कहाँ चढ़ता है इस सतह पर रंग....आज यह ,कल कोई और....पोशाक की तरह रंग बदलता है यह ।
चाँदनी का कफ़न ओढ़ सोई पड़ी
झील पर फूल की एक पांखुर गिरी
कुछ सिहरती हुई, कुछ थी सहमी हुई
लोग कहने लगे दूज का चाँद है.
सुन्दर अभिव्यक्ति के लिये बधाई स्वीकारें
सादर
राकेश
राकेश जी,बहुत सुन्दर प्रतिक्रिया है,धन्यवाद.बेजी
और समीर जी,आपको मेरी कविता अच्छी लगी,उसके लिए धन्यवाद,
रजनी
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