Tuesday, July 31, 2007

पल की बरसात

बारिश बरसी गली चौबारे,
ऐसी बरसी पाँव पसारे,
लोग गीले, भीगे,
ढूँढने चले छ्प्पर किनारे.

चिड़िया भीगी पेड़ पर,
घने पत्तों के नीचे टहनी पर
चुहक-चुहक कर
गुस्सा करती सावन पर.

चौराहा, आँगन और चौपाल
धुले हैं ज्यों आज,
झाड़ू बुहार दी हो जैसे
आगुंतक के आने की खुशी में आज.

प्यासा गुलमोहर और अमलतास
तृप्त हुआ बौछारों से आज,
कहा, ठहर जाओ,
सजी है सेज लाल पीले फूलों से आज.

सुन लिया जैसे सावन ने
धनक के रँग घोल दिए नभ में,
तूलिका को ले कर
साँझ को सिन्दूरी किया पल में.

बारिश बरसी पल दो पल,
मैं सूखी भिगो रही थी पल,
तुम्हारे हाथ को थामें
सावन से मोती चुरा रही थी कल.

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Sunday, July 22, 2007

उम्मीद

उम्मीद आसुँओं में बसी रहती है
बहती हुई यूँ हीं सफ़र तय करती है

मन में बेचैनी घनी धुँध सी रहती है
कोहरा छटे तो अजब तपिश सी लगती है

तुम जब लौट-लौट कर आते हो
ज़िन्दगी अध्यायों में बँटी लगती है

अक्षर जब तुम्हारा अनुसरण करते हैं
तुमसे लिखी हुई कहानी अच्छी लगती है

साँझ के काले साए जब और गहरे होते हैं
उससे रची भोर की अरूणिमा सुन्दर लगती है.