यह अभिमान मेरा
है मुखरित मौन मेरा
ओस की बूँद की तरह
बैठा है हरी दूब पर
ठँडा और नम सा है
ये अभिमान मेरा
तुम्हारी नज़र जब मुझे
ढूँढती है यादों के मेले में
तीखा और बेचैन दर्द सा है
ये अभिमान मेरा
आँगन में किलकती वीरानियाँ
जब तुलसी के आगे लौ में सुलगती हैं
कार्तिक की खुनक और लौ की गरमाहट सा है
ये अभिमान मेरा
तुम्हारी हर सोच में
मेरे को नया आयाम देना
अविष्कार के उल्लास और नूतन सा है
ये अभिमान मेरा
तुम्हारे संदर्भों में जब-जब
मेरे को आकाश मिला
कितना दीन और स्वाभिमान बन गया है
ये अभिमान मेरा
यह अभिमान मेरा
है मुखरित मौन मेरा.
Wednesday, July 19, 2006
गर्मी की एक दोपहर
कैसे हैं ये दिन, खोखले बाँस से बजते हैं
गुम हवा में टूटी आस से चुभते हैं
गलियों में हवा साँय-साँय चलती है
कैसी भटकन है, मरीचिका तो मन में बसती है
कुतरते दिन,लम्हा-लम्हा गिनते हैं
तुम्हारे साए के साथ अब भी चलते हैं
तपती ज़मीन, पाँव नहीं पड़ते हैं
फफोले पड़ गए,मेघ को तरसते हैं ।
Subscribe to:
Posts (Atom)