Monday, December 10, 2007

बिखरे खत

कुछ खत पहुँचे, कुछ पहुँचे ही नहीं,
कुछ उत्तरी दिशा में देवदारों पर अटक गए,
कुछ दक्षिण दिशा में संदल बन में भटक गए.
दरवाज़े की ओट में किसी की नज़र में रह गए,
किसी राह में साँझ के साथ डूबते चले गए,
तुम्हारे साथ चलते हुए कुछ लिखे गए
पर टूटे माणिक से हर जगह बिखर गए,
आरज़ू बीनते हुए मन के हर पृष्ठ पर लिखे
पर कुछ मन की बारिश में भीगते हुए यूँ ही धुल गए,
कुछ खत पहुँचे, कुछ पहुँचे ही नहीं।

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Monday, December 03, 2007

अम्मा की रसोई

अम्मा की रसोई में
सुबह शाम जलता चूल्हा,
बच्चों का उपर नीचे कूदना,
किसी का झिड़की खाना
तो किसी का आंचल में छुप जाना,
दिन गुज़रता था ऐसे
हर पल सँवरता हो जैसे।
कितने प्रश्न अम्मा के सामने जा बैठते थे,
अम्मा उन्हें हर कोने से उठा कर
तरतीब से लगाती थी,
जैसे अँगीठी में जलते कोयलों को
अँगुलियों से ठीक तरह लगाती हों।
दिन भर प्रश्नों से जूझना,
साँझ ढले उन्हे गोद में ले कर सो जाना,
अम्मा ने भेद लिया था संसार का सार,
सृष्टि का किया था नव निर्माण।
रूढियों में बँध कर पाला था ये संसार,
जो रोपा था दहलीज़ के इस पार,
बाँट दी धरोहर आज सब उस पार।

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Sunday, October 14, 2007

युग

तुम्हारी याद में एक युग समाया है,
गुज़रता है तो पुरवाई बन साँसों में समा जाता है,
हर राह सरल पगडंडी बन जाती है
जंगल की बीहड़ वीरानियाँ किनारे पर रह जाती है,
नागफ़नी पर ओस की बूँदें,
बादल बन धूप में घुल जाती हैं,
तुम्हारी आँखों की लकीरें हँसती हुई,
मेरे को तकती हैं
अनवरत कदमो से बढ़ती हुई,
मेरी हँसी को छूती हैं,
पिघलती यादें फ़िर से
एक युग में बहती हैं।

Tuesday, September 18, 2007

रात की कहानी

सुराही से रिसता पानी
छत की मुँडेर के पास ठहर गया था।
रात ने चाँद को सकोरे में उड़ेल कर
मुझे दिया था।
मैं अँजुरी में चाँद भर रही थी।
अँगुलियों से रिसती चाँदनी
अँजुरी में मावस भर रही थी।
सोच रही थी,
जब दूज का चाँद निकलेगा
तो अँजुरी फ़िर भरूँगी।
तुमसे रात की कहानी फ़िर
सुनूँगी।

Thursday, September 06, 2007

क्लैडिस्कोप

कल रात मुझसे लिपट कर
सोई थी एक गज़ल,
सुबह अशआर टिके थे अम्बर पर,
दर्द टिका था कोरों पर,
खनखनाती और रँग बिरँगी किरचों से
उभर आए हैं नए आयाम.
अनजाने अहसास से एक क्लैडिस्कोप
बना लाई है शाम ।

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Monday, September 03, 2007

अमलतास

जेठ की दुपहरी में
अलसाई धूप को लपेटे,
अमलतास लेता है अँगड़ाई,
मैं सिहर जाती हूँ,
छू जाती है जब ठँडी पुरवाई.

सूरज की किरणें जब पीले गुँचों में
नज़र आती हैं.
आँखों में फ़िरकनी घूम जाती है.

गुम दोपहरी में मैं,
पीले सूखे फूल मुट्ठी में भर कर,
बाबा को दे आती थी,
बाबा फ़ूँक मारते थे तो
हज़ारों तितलियाँ उड़ जाती थीं.

अमलतास के गले लग कर
हम अपनी बाँहों का घेरा नापते थे,
मेरा घेरा बढ़ता रहता था पर
बाबा का घेरा नहीं बढ़ता था.
मैं इंतज़ार करती रही कि
बाबा का घेरा कब बढ़ेगा.

घर के अहाते में आज
मेरे बिटिया की मुट्ठी में पीले सूखे फूल हैं,
फ़ूँक मारो तो हज़ारों तितलियाँ उड़ जाती हैं.
मेरा घेरा लेकिन अब नहीं बढ़ता,
लगता है अमलतास भी उतना का उतना ही है ।

Friday, August 17, 2007

मौन प्रतीक

साँझ के रँगों में
उदय होता वो पहला तारा,
मेरी आँखों में तैर रहा था,
रात भर सपनों में गूँथा,
सुबह आँख के कोरों से बह गया था,
सिरहाने सिर्फ़ उसका अहसास था,
भूलते हुए स्वप्न का
वह मौन प्रतीक था.

Tuesday, July 31, 2007

पल की बरसात

बारिश बरसी गली चौबारे,
ऐसी बरसी पाँव पसारे,
लोग गीले, भीगे,
ढूँढने चले छ्प्पर किनारे.

चिड़िया भीगी पेड़ पर,
घने पत्तों के नीचे टहनी पर
चुहक-चुहक कर
गुस्सा करती सावन पर.

चौराहा, आँगन और चौपाल
धुले हैं ज्यों आज,
झाड़ू बुहार दी हो जैसे
आगुंतक के आने की खुशी में आज.

प्यासा गुलमोहर और अमलतास
तृप्त हुआ बौछारों से आज,
कहा, ठहर जाओ,
सजी है सेज लाल पीले फूलों से आज.

सुन लिया जैसे सावन ने
धनक के रँग घोल दिए नभ में,
तूलिका को ले कर
साँझ को सिन्दूरी किया पल में.

बारिश बरसी पल दो पल,
मैं सूखी भिगो रही थी पल,
तुम्हारे हाथ को थामें
सावन से मोती चुरा रही थी कल.

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Sunday, July 22, 2007

उम्मीद

उम्मीद आसुँओं में बसी रहती है
बहती हुई यूँ हीं सफ़र तय करती है

मन में बेचैनी घनी धुँध सी रहती है
कोहरा छटे तो अजब तपिश सी लगती है

तुम जब लौट-लौट कर आते हो
ज़िन्दगी अध्यायों में बँटी लगती है

अक्षर जब तुम्हारा अनुसरण करते हैं
तुमसे लिखी हुई कहानी अच्छी लगती है

साँझ के काले साए जब और गहरे होते हैं
उससे रची भोर की अरूणिमा सुन्दर लगती है.

Sunday, April 22, 2007

आवरण

मुझसे मेरा परिचय करा दो
पेड़ की छाल से मेरा आवरण हटा दो
एक नवअंकुरित पौध
मिट्टी को खगाल
अभी-अभी फूटी है,
लचीली, कच्ची टहनी
नभ को छूने उठी है,
प्रभात की वेला में
गरमाहट उसको मिली है,
अमराई में चमकती हुई
मकड़ी के जालों सी खिली है
इससे पहले की वो बड़ी हो
परत दर परत गठे,
उस नवअंकुरित अहसास को
हवा में उड़ा दो,
मेरे पोर-पोर में बसा दो,
उनसे उपजित क्षणों को
कोई सुरभित संज्ञा दे दो,
मुझसे मेरा परिचय करा दो ।

Monday, April 02, 2007

बसंत

बसंत चली आई,
अधमुँदीं पलकों में,
कुछ तस्वीरों को ले कर.

एक कोलाज उभर कर आया है,
कुछ कच्ची कलियाँ हैं शाखों पर,
हरी दूब और उसके बीच में हैं कुछ डैफोडिल,
ठंडी हवा के झोंके में सिहरते हैं
नन्ही चिड़िया के पंख.

पीले पराग को हाथों में
लिये मैं रँग रही थी
भोर के प्रतीक्षित क्षणों को,
और तुम,
मेरे उन्हीं क्षणों से
सूर्य को अर्ध्य दे रहे थे,
मेरे बसंत को आँखों में समेटे हुए
खिलते फूलों का प्रसंग दे रहे थे.

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Friday, March 30, 2007

लघु कण

मैं एक लघु शवेत बर्फ़ का कण हूँ,
सूरज से लेता हूँ अपना अस्तित्व,
थोड़ी देर जीता हूँ,
उसी में समा जाता हूँ.

मेरा जीवन,
विभाजित, उद्वेलित और सीमित है,
अथाह से अनन्त तक.
मैं जीवित हूँ,
स्रिष्टी से संचार तक,
बर्फ़ के कण से
पिघलती हुई बूँद तक.

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Thursday, February 15, 2007

तेरा साथ

दिशाहीन रास्ते पर
हर रास्ता जाना पहचाना है,
ज़िन्दगी परिचित सी है
जब से मैने जाना है.

एक सिरा नहीं, एक मंज़िल नहीं
जब से तुझे पाया है.
क्षितिज की स्वर्णिम रेखा कहाँ गई
यह प्रश्न तेरे से खिचीं रेखा में पाया है.
लहर का कौन सा किनारा है,
समुद्र की थाह को चुप सा पाया है.
गुम हो तुम गर्म हवा की तरह
आसपास शायद मेरा साया है.
तेरे हाथ की तपिश ने
जब मेरी हथेली को सहलाया है
उस तपिश के गर्भ में
मैंने पुनर्जन्म पाया है.
तेरा साथ अँजुरी सा,
मुस्कान के बीच में
अश्रुबिंदु को झिलमिलाते पाया है.
तेरा साथ दिशाहीन सा,
भरी दोपहर में बर्गद की छाँव को
सिमटते पाया है.

दिशाहीन रास्ते पर,
हर रास्ता जाना पहचाना है,
ज़िन्दगी परिचित सी है,
जब से तुझे जाना है.

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Tuesday, January 23, 2007

कुछ हायकू

दिशा खोजती
नीर भरे बादल
भीगी है हवा.

बुझे अलाव
ठिठुर गई रात
दूर है भोर.

राह हठीली
मुड़ी न पगडंडी
भूली है पता.

गाढा अँधेरा
बदलते प्रहरी
गाती है रात.

नवेली रात
पग-पग बढे ये
साजन साथ.

बुला लो तुम
चैरी फूलों के संग
बसंत आया.

क्यूँ मैं चाहूँ
आकाश गँगा बहे
साथ में आज.

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