धूप में लिपटी एक प्रार्थना,
कुछ चुप, कुछ कहती हुई,
दूब के साथ उग रही थी।
मेरी कोट की जेब में
भूली हुई मेवा की तरह
अंगुलियों में कुलमुला रही थी।
मुट्ठी में भर कर,
मन में कुछ बुदबुदा कर,
फूँक मारी थी।
तुम्हारी आँखों के अथाह सागर में
गुम हुई खामोशी बता रही है,
शायद वो दुआ तुम तक पहुँची है।
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Friday, January 18, 2008
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6 comments:
कुछ चुप, कुछ कहती हुई,
दूब के साथ उग रही थी।
मेरी कोट की जेब में
भूली हुई मेवा की तरह
अंगुलियों में कुलमुला रही थी।
rajni ji.....ye lines dil me ab bhi atki hui hai.
umeed hai aage aor achha likhti rahegi.
अनुराग जी ब्लाग पर आने के लिए धन्यवाद.
जाड़े में धूप सी प्रार्थना - शांत संक्षिप्त गहरी - बहुत खूब - rgds- मनीष
शान्त सी एक प्रार्थना ने दिल को छू लिया
रोज़मर्रा की चीज़ों से चाट बनाते हैं और नज़्म बुन रही हैं, वाह क्या सलाइयाँ है सोच और शब्द!
सुना था कि ज़रूर पहुंचती है दिल से की गई प्रार्थना..और आज आपके शब्दों मे देख भी लिया..
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