कमरे में थी एक मेज़,
दो कुर्सियाँ,
सीलिंग से लटके लैम्प की
रोशनी गोल सीमित दायरे में.
उससे परे थे कुछ साए,
खिड़की में रखे गमले के,
कांउटर पर कप और प्लेट के,
खूँटी पर टँगे कपड़ों के.
समय के सन्नाटे में,
झाँक रहा था सूरज का एक टुकड़ा,
आधा मेज़ पर और आधा फ़र्श पर लेटा हुआ,
धीरे-धीरे फ़र्श पर उतरते हुए
रह गई थी अब एक लकीर
जो घुल-मिल गई थी मेरी हाथ की लकीरों से,
चेतना के फूल खिल गए थे इस जज़ीरे पर।
समय के गठबँधन खुल गए थे किनारे पर।
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Monday, January 14, 2008
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8 comments:
"आधा मेज़ पर और आधा फ़र्श पर लेटा हुआ"
चलो उठाये उसे
बहुत हुआ
इतनी काहिली भी
हर वक्त
अच्छी नहीं !
अपने आस पास घट रही घटनाओं को बखूबी कविता मे समेट चित्रित किया है।
अत्यन्त सशक्त ।
CHITR UBHAR GAYAA AANKHO KE SAMAKSH
जब जब खुले समय के मेरे बँधे हुए गठबन्धन सहसा
तब तब और नई कलियों ने मन में ली आकर अंगड़ाई
धूप-छांह, सूरज या बादल सब आकर अलसा जाते हैं
कोई जाता नहीं छोड़ कर, जैसे याद तुम्हारी आई
प्रत्यक्षा,
सूरज का टुकड़ा उठाया था,
खिड़की से बाहर निकाला तो था,
मालिन ले गई थी अपने साथ,
क्यारियों में बोया है मोगरे के साथ,
अब खिलखिलाता है हर दिन
रहता है मेरे साथ हर दिन.
परमजीत जी,अफ़लातून जी और पारुल ब्लाग पर आने के लिए धन्यवाद.
राकेश जी बहुत खूब.
उससे परे थे कुछ साए,
खिड़की में रखे गमले के,
कांउटर पर कप और प्लेट के,
खूँटी पर टँगे कपड़ों के.
kash ki aor kuch bhi kaha hota? achhi lagi.
धीरे-धीरे फ़र्श पर उतरते हुए
रह गई थी अब एक लकीर
जो घुल-मिल गई थी मेरी हाथ की लकीरों से,
चेतना के फूल खिल गए थे इस जज़ीरे पर।
बहुत सुंदर चित्रण है।
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