टूटते तारे
लान में लेटे हुए
अगस्त माह
गाँव में चाँद
बावड़ी में भीगा है
अमा आ गई
धुला सूरज
जंगले आती धूप
चाय की चुस्की
गरजे मेघ
कानाफ़ूसी करते
ऊँचे शीशम
नन्ही मछली
पोखर है हाथ में
जमी है काई
मेपल पत्ती
डायरी के पन्ने
झड़ रहे हैं
__________
Wednesday, October 01, 2008
Thursday, September 18, 2008
आरिगामी
धूप और पत्तों की आरिगामी
मेरी खिड़की पर बन रही थी,
सुबह के बदलते पहर
मुड़ते, खुलते
खिड़की के एक कोने पर
सीमित रह गए थे।
उस आरिगामी में रह गई थी अब,
एक मैना,
एक पत्ती,
एक टुकड़ा धूप।
धूप सरकी,
पत्ती टूटी,
मैना उड़ गई,
और,
अब रह गया है
सिर्फ़ कोरा कागज़
दूसरे पहर के रंग में ढलने के लिये
नई आरिगामी बनने के लिये।
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मेरी खिड़की पर बन रही थी,
सुबह के बदलते पहर
मुड़ते, खुलते
खिड़की के एक कोने पर
सीमित रह गए थे।
उस आरिगामी में रह गई थी अब,
एक मैना,
एक पत्ती,
एक टुकड़ा धूप।
धूप सरकी,
पत्ती टूटी,
मैना उड़ गई,
और,
अब रह गया है
सिर्फ़ कोरा कागज़
दूसरे पहर के रंग में ढलने के लिये
नई आरिगामी बनने के लिये।
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Tuesday, September 02, 2008
नानाजी की टोपी
मैं नानाजी की टोपी,
चाँद की किरण से सीती थी।
अंदर से टोपी उधड़ गई थी।
उम्र में बड़ी हो गई थी।
थकी-हारी कुछ बेजान सी लगती थी।
जब तागे निकल जाते थे तो
झूमर से लहराते थी।
बड़े छोटे बेतरतीब से माथे पर नज़र आते थे।
टोपी अब भी पुख्ता थी।
ऐसे लगता था जैसे कोई मनौती हो,
दुआ सी असर करती थी।
नानाजी को ठंड से बचाए रखती थी।
चाँद की किरण तिलस्मी होती है,
अम्बर की परी नानाजी की सहेली होती थी।
टोपी जब ठीक हो जाती थी
ढेरों आशीषों की बरसात होती थी।
नानाजी के पास चाँद की किरण होती थी,
मेरे पास आशीषों की बरसात।
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चाँद की किरण से सीती थी।
अंदर से टोपी उधड़ गई थी।
उम्र में बड़ी हो गई थी।
थकी-हारी कुछ बेजान सी लगती थी।
जब तागे निकल जाते थे तो
झूमर से लहराते थी।
बड़े छोटे बेतरतीब से माथे पर नज़र आते थे।
टोपी अब भी पुख्ता थी।
ऐसे लगता था जैसे कोई मनौती हो,
दुआ सी असर करती थी।
नानाजी को ठंड से बचाए रखती थी।
चाँद की किरण तिलस्मी होती है,
अम्बर की परी नानाजी की सहेली होती थी।
टोपी जब ठीक हो जाती थी
ढेरों आशीषों की बरसात होती थी।
नानाजी के पास चाँद की किरण होती थी,
मेरे पास आशीषों की बरसात।
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Monday, June 02, 2008
आकांक्षा
आकाश को कितनी ही बार
अपने हाथों में ले कर
दूधिया बादल से नहाई हूँ मैं,
आकांक्षाओं को कई बार
अपनी आँखों में संजो कर
रंग भरी पिचकारी सी छूटी हूँ मैं,
और फिर,
गुलमोहर की तरह गर्व से
तुम पर बिखर गई हूँ मैं,
क्षितिज का प्रथम पहरेदार
आकाश में वो जो ध्रुव तारा है,
उसे तुम्हे सौंप कर
रात में चाँदनी बन कर छिटक गई हूँ मैं
तुम जानो या न जानो
अहसासों के इस गुलदान में
बादलों से नहाई हूँ,
रंगों से भीगी हूँ,
चाँदनी सी छिटकी हूँ,
और इन्ही खूबसूरत अहसासों से,
संदली हवा की तरह
महक गई हूँ मैं।
अपने हाथों में ले कर
दूधिया बादल से नहाई हूँ मैं,
आकांक्षाओं को कई बार
अपनी आँखों में संजो कर
रंग भरी पिचकारी सी छूटी हूँ मैं,
और फिर,
गुलमोहर की तरह गर्व से
तुम पर बिखर गई हूँ मैं,
क्षितिज का प्रथम पहरेदार
आकाश में वो जो ध्रुव तारा है,
उसे तुम्हे सौंप कर
रात में चाँदनी बन कर छिटक गई हूँ मैं
तुम जानो या न जानो
अहसासों के इस गुलदान में
बादलों से नहाई हूँ,
रंगों से भीगी हूँ,
चाँदनी सी छिटकी हूँ,
और इन्ही खूबसूरत अहसासों से,
संदली हवा की तरह
महक गई हूँ मैं।
Wednesday, May 21, 2008
सभ्यता
ज़िन्दगी के पलों को
गुणा, भाग कर ,
घटा, जोड़ कर ,
बहा दिया था नदी में एक दिन मैने ।
नदी -
जो ज़मीन के नीचे,
पुरखों के पांव तले
और मेरे पाँव के नीचे भी
बहती रही है सदियों से ।
मैं देखती हूँ
कि उभर आये हैं भित्तिचित्र
नदी के मुहाने पर ।
और...
ये भी देख रही हूँ मैं
कि इतिहास के संदर्भों की दरारों में
ठहर गया है पानी,
और इसी पानी में
खिल गये हैं कमल के फ़ूल ।
चकित हूँ मैं
इस दृश्य को देख कर
कि इसी नदी के मुहाने पर
किलकारी ले रही है नई सभ्यता
ठीक ऐसे ही
जैसे हँसता है नवजात शिशु
माँ की गोद में आकर । ....
गुणा, भाग कर ,
घटा, जोड़ कर ,
बहा दिया था नदी में एक दिन मैने ।
नदी -
जो ज़मीन के नीचे,
पुरखों के पांव तले
और मेरे पाँव के नीचे भी
बहती रही है सदियों से ।
मैं देखती हूँ
कि उभर आये हैं भित्तिचित्र
नदी के मुहाने पर ।
और...
ये भी देख रही हूँ मैं
कि इतिहास के संदर्भों की दरारों में
ठहर गया है पानी,
और इसी पानी में
खिल गये हैं कमल के फ़ूल ।
चकित हूँ मैं
इस दृश्य को देख कर
कि इसी नदी के मुहाने पर
किलकारी ले रही है नई सभ्यता
ठीक ऐसे ही
जैसे हँसता है नवजात शिशु
माँ की गोद में आकर । ....
Friday, May 16, 2008
मेरे अपने सपने
मेरे सपने मेरे अपने हैं,
कोई भी इस हाशिए पर लिखे
ये फ़िर भी मेरे अपने हैं.
मौजों पर सवार ये तख्ती,
बहुत थपेड़े सहती है.
क्षितिज तक पहुँचने की चाह में
खुद ही मीलों तक बहती है.
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कोई भी इस हाशिए पर लिखे
ये फ़िर भी मेरे अपने हैं.
मौजों पर सवार ये तख्ती,
बहुत थपेड़े सहती है.
क्षितिज तक पहुँचने की चाह में
खुद ही मीलों तक बहती है.
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Friday, March 21, 2008
होली- कुछ चित्र
खुलते जाते सब गठबँधन
आसमान से हटते पहरे
जब से फागुन ले कर आया
पीत पराग रँग कुछ गहरे।
---
पीली हल्दी, सजी किनारी
खिली धूप की चादर ओढ़ी
आँगन पूरा हरसिंगार सा
और वसंत खड़ी है ड्योढ़ी।
---
पच पच पच करती पिचकारी
रँगों की बहती फुलवारी
मल गुलाल सिहरी दोपहरी
मेघों का सुन गर्जन भारी
---
आँगन में फ़ैली है किच-पिच
रंग सुनहरे, चूनर गीली
सूर्य किरण अब उन्हें सोख के
खेल रही गलियों में होली।
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होली की शुभकामनाओं सहित
आसमान से हटते पहरे
जब से फागुन ले कर आया
पीत पराग रँग कुछ गहरे।
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पीली हल्दी, सजी किनारी
खिली धूप की चादर ओढ़ी
आँगन पूरा हरसिंगार सा
और वसंत खड़ी है ड्योढ़ी।
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पच पच पच करती पिचकारी
रँगों की बहती फुलवारी
मल गुलाल सिहरी दोपहरी
मेघों का सुन गर्जन भारी
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आँगन में फ़ैली है किच-पिच
रंग सुनहरे, चूनर गीली
सूर्य किरण अब उन्हें सोख के
खेल रही गलियों में होली।
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होली की शुभकामनाओं सहित
Thursday, February 07, 2008
सवाल
वो पल वहीं ठहर गया था,
जिस पल खिड़की से छनती धूप ने,
तुम्हे हताश और निढाल पाया था,
मेरी आँखों से कुछ सवाल करते पाया था।
वो सवाल अभी भी उघड़े पड़े हैं,
उस पोस्टकार्ड की तरह जो आया था
पहाड़ियों की बर्फ से भीग कर,
दराज़ में अब भी पड़ा है
कुछ सिकुड़ा हुआ।
चलो,
अब हताश लकीरों को ताक पर रख दें,
एक नए पोस्टकार्ड पर ट्यूलिप्स और क्रोकस बनाते हैं,
बसंत को बुलाते हैं,
कुछ बादल छँट जाएँगे,
तुम्हे मेरे कुछ जवाब मिल जाएँगे|
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जिस पल खिड़की से छनती धूप ने,
तुम्हे हताश और निढाल पाया था,
मेरी आँखों से कुछ सवाल करते पाया था।
वो सवाल अभी भी उघड़े पड़े हैं,
उस पोस्टकार्ड की तरह जो आया था
पहाड़ियों की बर्फ से भीग कर,
दराज़ में अब भी पड़ा है
कुछ सिकुड़ा हुआ।
चलो,
अब हताश लकीरों को ताक पर रख दें,
एक नए पोस्टकार्ड पर ट्यूलिप्स और क्रोकस बनाते हैं,
बसंत को बुलाते हैं,
कुछ बादल छँट जाएँगे,
तुम्हे मेरे कुछ जवाब मिल जाएँगे|
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Friday, January 18, 2008
प्रार्थना
धूप में लिपटी एक प्रार्थना,
कुछ चुप, कुछ कहती हुई,
दूब के साथ उग रही थी।
मेरी कोट की जेब में
भूली हुई मेवा की तरह
अंगुलियों में कुलमुला रही थी।
मुट्ठी में भर कर,
मन में कुछ बुदबुदा कर,
फूँक मारी थी।
तुम्हारी आँखों के अथाह सागर में
गुम हुई खामोशी बता रही है,
शायद वो दुआ तुम तक पहुँची है।
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कुछ चुप, कुछ कहती हुई,
दूब के साथ उग रही थी।
मेरी कोट की जेब में
भूली हुई मेवा की तरह
अंगुलियों में कुलमुला रही थी।
मुट्ठी में भर कर,
मन में कुछ बुदबुदा कर,
फूँक मारी थी।
तुम्हारी आँखों के अथाह सागर में
गुम हुई खामोशी बता रही है,
शायद वो दुआ तुम तक पहुँची है।
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Monday, January 14, 2008
चेतना के फूल
कमरे में थी एक मेज़,
दो कुर्सियाँ,
सीलिंग से लटके लैम्प की
रोशनी गोल सीमित दायरे में.
उससे परे थे कुछ साए,
खिड़की में रखे गमले के,
कांउटर पर कप और प्लेट के,
खूँटी पर टँगे कपड़ों के.
समय के सन्नाटे में,
झाँक रहा था सूरज का एक टुकड़ा,
आधा मेज़ पर और आधा फ़र्श पर लेटा हुआ,
धीरे-धीरे फ़र्श पर उतरते हुए
रह गई थी अब एक लकीर
जो घुल-मिल गई थी मेरी हाथ की लकीरों से,
चेतना के फूल खिल गए थे इस जज़ीरे पर।
समय के गठबँधन खुल गए थे किनारे पर।
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दो कुर्सियाँ,
सीलिंग से लटके लैम्प की
रोशनी गोल सीमित दायरे में.
उससे परे थे कुछ साए,
खिड़की में रखे गमले के,
कांउटर पर कप और प्लेट के,
खूँटी पर टँगे कपड़ों के.
समय के सन्नाटे में,
झाँक रहा था सूरज का एक टुकड़ा,
आधा मेज़ पर और आधा फ़र्श पर लेटा हुआ,
धीरे-धीरे फ़र्श पर उतरते हुए
रह गई थी अब एक लकीर
जो घुल-मिल गई थी मेरी हाथ की लकीरों से,
चेतना के फूल खिल गए थे इस जज़ीरे पर।
समय के गठबँधन खुल गए थे किनारे पर।
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Wednesday, January 09, 2008
नया साल
आया नया साल
ढलते दिन के साथ,
साँसे बह चली,
लिये नूतन दिवस के पराग।
आया नया साल
बदलती तिथि के साथ,
अहसासों की गिलौरी में
बस गई है मीठी आस
आया नया साल
पुराने दिनों के साथ
आस्था की मौली बाँधी,
नए सूर्योदय के साथ।
आया नया साल
गुज़रते सपनों के साथ,
खुरदरे समय पर लिखी
तराशी हुई कहानियाँ आज।
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ढलते दिन के साथ,
साँसे बह चली,
लिये नूतन दिवस के पराग।
आया नया साल
बदलती तिथि के साथ,
अहसासों की गिलौरी में
बस गई है मीठी आस
आया नया साल
पुराने दिनों के साथ
आस्था की मौली बाँधी,
नए सूर्योदय के साथ।
आया नया साल
गुज़रते सपनों के साथ,
खुरदरे समय पर लिखी
तराशी हुई कहानियाँ आज।
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