कल रात मुझसे लिपट कर
सोई थी एक गज़ल,
सुबह अशआर टिके थे अम्बर पर,
दर्द टिका था कोरों पर,
खनखनाती और रँग बिरँगी किरचों से
उभर आए हैं नए आयाम.
अनजाने अहसास से एक क्लैडिस्कोप
बना लाई है शाम ।
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Thursday, September 06, 2007
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5 comments:
तारीफ करने के लिये शब्द नहीं हैं।
वाह !
तीसरी पंक्ति में अगर
सुबह अशआर टंगे थे अम्बर पर,
कहें तो ?
सही है। अच्छी है। जवाब दीजिये पाठक की बात का!
बेजी तारीफ़ के लिए धन्यवाद !
अनूप ! मैं सोच रही थी कि तुम ही ठीक कर दोगे ,आधा काम तो कर ही दिया है
और अनूप (शुक्ला)जी आज सूरज किधर से निकला है ?
इतनी सारी टिप्पणियाँ :-)
धन्यवाद
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धन्यवाद दिनेश
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