सुराही से रिसता पानी
छत की मुँडेर के पास ठहर गया था।
रात ने चाँद को सकोरे में उड़ेल कर
मुझे दिया था।
मैं अँजुरी में चाँद भर रही थी।
अँगुलियों से रिसती चाँदनी
अँजुरी में मावस भर रही थी।
सोच रही थी,
जब दूज का चाँद निकलेगा
तो अँजुरी फ़िर भरूँगी।
तुमसे रात की कहानी फ़िर
सुनूँगी।
Tuesday, September 18, 2007
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12 comments:
क्या कहा जाए कल्पना की ऐसी मीठी उड़ान बहुत दिनों बाद पढ़ने को मिली… बहुत ही आनंद से भरी हुई रचना है…।
Bahut hi sundar imaginations!
रजनी जी,
बहुत सुंदर लगी आपकी उपमा और कल्पना वाली उड़ान....बधाई
आपकी रचनाओं को पढ़कर अक्सर आपकी सुंदरता का अनुमान लगाने का मन करता है।
Beji, sundarta ka anumaan? Rajni bhabhi bahut bahut sundar hain...angrezee ka shabed sahi baithta hai, gorgeous!
Rajni bhabhi, bahut sundar panktiyaan hain.
अद्भुत कल्पनाशीलता!! बधाई.
दिव्याभ जी, शिल्पा,रीतेश, बेजी, समीर जी और
मानोषी बहुत बहुत धन्यवाद कविता सरहाने का. बेजी मानोषी की बातों में मत आना.मुझसे जब मिलोगी तब ही जान पाओगी.
लगता है कविता ही हमें बचा पाएगी
शब्द ही हथेलियों पर गुलाब बन कर खिलेंगे
---कल्पना की उड़ान और शब्दों का चयन अच्छा है। बधाई!
गहन अनुभूतिमय सौंदर्य की व्यापक कल्पना की अभिव्यंजना इस कविता में देखने योग्य है।
बहुत सुंदर! बधाई स्वीकारें।
Rajni
bahut sunder udaan hai soch ki aur sunder shabd bhi hai.
daad ho
Devi
वाह !
मन्त्र मुग्ध हो गया।
रात की अगली कहानी में कुछ नए किस्से जोड़ कर सुनियेगा कविता के अगले भाग में. बहुत हे सुन्दर कविता लगी मुझे शुक्रिया.
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