अम्मा की रसोई में
सुबह शाम जलता चूल्हा,
बच्चों का उपर नीचे कूदना,
किसी का झिड़की खाना
तो किसी का आंचल में छुप जाना,
दिन गुज़रता था ऐसे
हर पल सँवरता हो जैसे।
कितने प्रश्न अम्मा के सामने जा बैठते थे,
अम्मा उन्हें हर कोने से उठा कर
तरतीब से लगाती थी,
जैसे अँगीठी में जलते कोयलों को
अँगुलियों से ठीक तरह लगाती हों।
दिन भर प्रश्नों से जूझना,
साँझ ढले उन्हे गोद में ले कर सो जाना,
अम्मा ने भेद लिया था संसार का सार,
सृष्टि का किया था नव निर्माण।
रूढियों में बँध कर पाला था ये संसार,
जो रोपा था दहलीज़ के इस पार,
बाँट दी धरोहर आज सब उस पार।
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Monday, December 03, 2007
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13 comments:
जबर्दस्त कविता।
सुन्दर , मर्ममय ।
सजीव । बधायी ।
सुंदर!!
वाह. भावपूर्ण कविता
बधाई
नीरज
आहा ! कमाल है. जाने किन ख़यालों में खो गया हूँ. जाने क्या .... क्या क्या कह गई आपकी रचना.
कितने दिनों बाद लिखा है आपने....सुंदर....आप ऐसा ही लिखती हैं हर बार...!!
अच्छा लगा पढ़कर ...सुंदर भाव ...बधाई
बहुत खूब |
kavitaon mai ek tajgi hai. lekin bhoogol nhi badalta hai.
amma ki yaad aa gayi, haatho rongte khade ho gaye
मर्मस्पर्शी
Maa ki yaad aa gayi.
Bhavon se bhari kavita hai.
Rgds..Shardula
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