टूटी शाखों पर गिरती पानी की बूँदें
दालान में कपड़ों से टपकती बूँदें
दीवार से जैसे नीले झरने फूटते हैं
धूप से मेरी दोस्ती
कल ही हुई थी
जब वो खाट के नीचे दो पल को सोई थी
आज फिर कगूरों से टपकती हैं बूँदें
आंगन फिर खाली थाल सा बजता है
कोसों दूर
अम्बर फिर से टूटता है।
Monday, October 15, 2012
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
Post a Comment