Friday, December 18, 2009

मत्स्य

रात का आखिरी पहर जब और गाढ़ा हो,
जब हाथ को हाथ न सूझे,
अंधेरे में मुट्ठी भर शब्द
मोगरे की तरह महक उठे,
अंधेरे की रेशमी तह
चूम कर बलैयां लेती रहें,
तुम सिरहाने बैठ कर
शांत, निर्लिप्त, विरक्त
समुद्र में नौका खेते रहो
और,
मैं फेनल से भीगी मत्स्य
अर्जित कर दूँ तुम्हें वह बूँद
जो अमृत सी कंठ में बिंधी रहे,
प्यास बुझाती रहे युगों तक
आदि से अनंत तक।

______________________

8 comments:

Udan Tashtari said...

अति सुन्दर!!

M VERMA said...

मैं फेनल से भीगी मत्स्य
अर्जित कर दूँ तुम्हें वह बूँद
जो अमृत सी कंठ में बिंधी रहे,
बहुत खूबसूरत. शब्दों और भावो का अद्भुत सम्मिश्रण

Arvind Mishra said...

श्रृंगार संचरण की अद्भुत कविता !
मैं तो पहले चौका मेरा विभाग कहाँ से आ टपका ?

वाणी गीत said...

मैं फेनल से भीगी मत्स्य ...मत्स्य सुंदरी की कल्पना साकार करती सुन्दर कविता ...!!

डॉ .अनुराग said...

अंधेरे में मुट्ठी भर शब्द
मोगरे की तरह महक उठे,
अंधेरे की रेशमी तह
चूम कर बलैयां लेती रहें,
तुम सिरहाने बैठ कर
शांत, निर्लिप्त, विरक्त
समुद्र में नौका खेते रहो
और,
मैं फेनल से भीगी मत्स्य
अर्जित कर दूँ तुम्हें वह बूँद
जो अमृत सी कंठ में बिंधी रहे,
प्यास बुझाती रहे युगों तक
आदि से अनंत तक।







शानदार !!

Dr. Shreesh K. Pathak said...

आहा..यह चिर-प्रतीक्षित आशा...कुछ यूँ ही पूरी हो जाये...ईश्वर...!

बेहतरीन पंक्तियाँ...यकीनन...!

Dr.Ajit said...

आप मेरी ब्लाग यात्रा के पहले साक्षी रहे है आज से लगभग जब दो साल पहले मैने ब्लाग लिखना शुरु किया था तब आप ही जिन्होने मुझे तहेदिल से पढा और न केवल पढा बल्कि मुझे प्रोत्साहित भी किया कुछ लिखने के लिए। इधर कुछ दिन से दुनियादारी मे उलझा रहा सो नियमित ब्लाग लेखन छुट गया लेकिन लगभग दो साल के निर्वासन के बाद मै फिर आपकी बज्म मे आ ही गया हू अपने दिल के जज्बात लेकर सो एक अधिकार के साथ आग्रह कर रहा हू कि पूर्व की भांति ही आपके स्नेह की प्रत्याशा मे हू...आपकी अभिव्यक्ति मुझे उर्जा देगी ऐसा मेरा विश्वास है।
आपका डा.अजीत
www.shesh-fir.blogspot.com

वन्दना अवस्थी दुबे said...

बहुत सुन्दर रचना.